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का नूतन-विद्वष इस चरम सीमा पर पहुंच चुका है, कि नए तथ्य को वे उस समय भी ग्रहण नहीं कर पाते, जबकि वह हमारे प्राचीन शास्त्रों की शब्दश्रुति से मूल भावपक्ष तक भी पहुँच जाता है। किन्तु पुरातन भले ही कितना भद्दा, कितना गला-सड़ा, कितना ही अनुपयोगी एवं शास्त्रभावना से भटका हुआ क्यों न हो, वे उसे सर्वतो भावेन ग्रहण कर लेते हैं। कुछ लोग इस प्रकार के भी हैं जो नए विचारों का सम्मान तो करते हैं किन्तु वे उसे मुक्त रूप से सार्वजनिक जीवन मंच पर अपने जीवन-धरातल पर उतार नहीं पाते। कवि श्री जी अपने युग के इन्हीं विषम वादों को, दूर करने का प्रयत्न करते हैं कि वह जीवन के लिए उपयोगी है। दूसरी ओर नवीन से नवीन विचार को भी वे आत्मसात् करने का प्रयत्न इसी आधार पर करते हैं कि वह जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। जो कुछ जीवन के लिए उपयोगी एवं ग्राह्य है, उसे वे सहज एवं सरल भाव से ग्रहण करते हुए किसी प्रकार के भय का अनुभव नहीं करते। भय और तीखी आलोचना उन्हें कभी पथ से विचलित नहीं कर सकती।
प्रस्तुत पुस्तक 'ब्रह्मचर्य-दर्शन' तीन खण्डों में विभाजित है-प्रवचन-खण्ड, सिद्धान्त-खण्ड और साधन-खण्ड । प्रवचन-खण्ड में, जो प्रवचन दिए गए हैं, वे इतने व्यापक हैं कि आज के युग का ताजा से ताजा विचार उसमें उपलब्ध किया जा सकता है। सिद्धान्त-खण्ड में ब्रह्मचर्य को शरीर-विज्ञान, मनोविज्ञान, धर्म, नीतिशास्त्र और दर्शन की दृष्टि से परखने का, समझने का और बोलने का प्रयत्न किया गया है। साधन-खण्ड में यह बतलाया गया है कि ब्रह्मचर्य को जीवन में उतारने का प्रयोगात्मक एवं रचनात्मक उपाय क्या है, कैसा है और उसे किस प्रकार जीवन में क्रियान्वित किया जाए। अन्त में परिशिष्ट के रूप में ब्रह्मचर्य सूक्त जोड़ दिया गया हैं, जिससे पाठक ब्रह्मचर्य के प्राचीन सूक्तों को याद करके उनसे कुछ प्रेरणा ग्रहण कर सकें। प्रारम्भ के उपक्रम में यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि ब्रह्मचर्य क्या है और उसकी उपयोगिता आज के जीवन में कैसी और कितनी है।
प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में मुझे जो कुछ करना था, वह किया अवश्य है, किन्तु यह ध्यान रखते हुए कि पूर्वापर विचारों में कहीं विसंगति उत्पन्न न हो जाए। फिर भी मैं यह भली-भाँति समझता हूँ, कि कहीं-कहीं पर विचारों में पुनरुक्ति अवश्य ही आई है, परन्तु हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि यह एक पुराने और नए प्रवचनों की पुस्तक है। प्रवचनों में, और वह भी कालान्तरित प्रवचनों एवं स्वतंत्र विचार चर्चाओं में पुनरुक्ति दूषण नहीं, भूषण ही मानी जाती है।
-विजय मुनि
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