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________________ २२ ब्रह्मचर्य दर्शन है ।" और फिर उन्होंने विकारों और वासनाओं से अपने आपको मुक्त रखने के लिए भी कहा । जहाँ तक साधारण उपदेशक का प्रश्न है, कोई आपति नहीं, मगर जब एक दार्शनिक इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करता है, तो उसकी भाषा गलत भाषा हो जाती है । पहले तो यह कहना कि पतन होना स्वभाव है, और फिर यह भी कहना, कि . उसे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। कैसे समझ में आ सकता है ? किसी आदमी से यह कहना कि क्रोध करना आत्मा का स्वभाव है और क्रोध से कोई मुक्त हो ही नहीं सकता, और फिर दूसरी साँस में उसे क्रोध न करने का उपदेश देना, क्या गलत चीज नहीं है ? दीपक की ज्योति का स्वभाव प्रकाश देना है, किन्तु उससे यह इच्छा की जाए कि वह प्रकाश न करे, तो क्या यह कभी संभव हो सकता है ? स्वभाव कभी अलग नहीं हो सकता । आज विभाव को स्वभाव मानकर चलने की आदत हो गई है। एक दर्शन ने इस मान्यता का समर्थन कर दिया है । अतएव लोग अपनी अनन्त शक्ति के प्रति शंका शील हो रहे हैं और उस ओर से उदासीन होते जा रहे हैं । इस दृष्टिकोण के मूल में ही भूल पैदा हो गई है। जब तक इस भूल को दुरुस्त न कर लिया जाए, जीवन के क्षेत्र में किसी भी प्रकार की प्रगति नहीं की जा सकेगी । जैनधर्म का सिद्धान्त यह है, कि अनन्त अनन्त काल बीत जाने पर भी विभाव, विभाव ही रहेगा, वह कभी स्वभाव नहीं हो सकता । जो स्वभाव है, वह कदापि विभाव नहीं बनेगा | जैनधर्म इस विराट् संसार को दो भागों में विभाजित करता है - जड़ और चेतन । और वह कहता है, कि जड़ अनन्त है और चेतन भी अनन्त है । पूर्व - बद्ध कर्म - पुद्गल रूप जड़ के संसर्ग से चेतन में रागादि रूप और रागादियुक्त चेतन के संसर्ग से जड़ पुद्गल में कर्म रूप विभाव परिणति उत्पन्न होती है । चार्वाक लोग सारे संसार को एक इकाई के रूप में मान रहे हैं, और कहते हैं चैतन्य भी जड़ का ही विकार है । इस प्रकार उन्होंने सारे संसार को कि यह दृश्यमान सारा संसार, मात्र जड़ है, और जड़ से भिन्न आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है । जड़ का रूप दे दिया है । दूसरी ओर हमारे यहाँ वेदान्ती हैं, जो बड़े ऊंचे विचारक कहे जाते हैं, वे भी एक सिरे पर खड़े हैं। उनका कहना है कि यह समग्र विश्व, जो आपके सामने है, जड़ नहीं, चेतन है और चेतन के सिवाय और कुछ भी नहीं है । जो जड़ दिखाई देता है, वह भी चेतन ही है । उसे जड़ समझना वास्तव में तुम्हारे मन की भ्रान्ति है । अँधेरे में तुम्हारे सामने रस्सी पड़ी है। तुम्हारी उस उनका यह तर्क है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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