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________________ प्रवचन आत्म-शोधन ... मानव-जीवन का विराट् स्वरूप हम सबके सामने है । जब हम उसका गहराई से अध्ययन करते हैं, तब उसमें अच्छाइयों और बुराइयों का एक विचित्र-सा तानाबाना हमें परिलक्षित होता है। एक ओर आध्यात्मिक भावना की पवित्र एवं निर्मल धाराएं प्रवाहित होती नजर आती हैं, तो दूसरी ओर दुर्वासनाओं की गन्दी और सड़ती हुई नालियां भी बहती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। एक ओर सद्गुणों के फूलों का सुन्दर बाग खिला है, तो दूसरी ओर दुगुणों के कांटों का जंगल भी खड़ा है। एक ओर घना अन्धकार घिरा है, तो दूसरी ओर उज्ज्वल प्रकाश भी चमक रहा है । देवी और आसुरी भावनाओं का यह चिरन्तन देवासुर-संग्राम मानव-जीवन के कणकण में परिव्याप्त है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है, कि मनुष्य जीवन में जहाँ अच्छाइयाँ हैं, वहाँ बुराइयाँ भी हैं । एक क्षण के लिए भी दोनों का महायुद्ध कभी बन्द नहीं हुआ। कभी अच्छाइयाँ विजय प्राप्त करती दिखाई देती हैं, तो कभी बुराइयाँ सर उठाती नजर आती हैं। इस अन्तर्द्वन्द्व के सम्बन्ध में कुछ लोगों ने माना है, कि चैतन्य आत्मा अपने मूल स्वभाव में बुरा ही है, वह कभी अच्छा हो ही नहीं सकता । अनन्त-अनन्त काल बीत जाने पर भी वह अच्छा नहीं बना और अनन्त-काल गुजर जाएगा, तब भी वह अच्छा नहीं बन सकेगा। क्योंकि उसमें वासनाएं बनी रहती हैं, फलस्वरूप जन्ममरण का चक्र भी सदा चलता ही रहता है । इसी मान्यता के आधार पर भारत में एक दर्शन-शास्त्र का निर्माण भी हुआ और उसकी परम्परा आगे बढ़ी। इस दार्शनिक परम्परा ने आत्मा की पूर्ण पवित्रता और निर्मलता की भावना से एक तरह से साफ इन्कार कर दिया और मान लिया, कि आत्मा को संसार में ही रहना है और वह संसार में ही रहेगी, क्योंकि उसके लिए संसार से ऊंची कोई भूमिका है ही नहीं। और वासना ? वह तो अन्दर की एक अग्नि है । कभी तीव्र तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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