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________________ २३२ ब्रह्मचर्य-दर्शन न तथैतानि शक्यन्ते संनियन्तुमसेवया । विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः ।। -मनुस्मृति २।६६ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि विषयों में प्रसक्त इन्द्रियों का अपने विषयों से हटाने मात्र से वैसा वास्तविक संयम नहीं किया जा सकता, जैसा कि सदा ज्ञान से, अर्थात् अपने पवित्र आदर्श और विषयों के हानिकर एवं क्षणिक स्वरूप के सतत चिन्तन से किया जा सकता है । प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ -गीता २, ५५ ॥ हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट हुआ वह स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है। यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ -गीता २, ५८ ।। कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते । -गीता २, ५६ ॥ यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुषों के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनका राग नहीं निवृत्त होता । और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है । यततो ह्यपि कौन्तेय ! पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ -गीता २, ६०॥ हे अर्जुन ! यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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