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जैन-सूक्त
२२५ मा पेह पुरा-पणामए,
अभिकंखे उवहिं धुणित्तए । जे दूमणएहि नो नया,
ते जाणंति समाहिमाहिय ।
-सूत्र० श्रु० १, अ० २, उ० २ गा० २७ हे प्राणी ! पूर्वानुभूत विषय-भोगों का स्मरण न कर, न ही उनकी कामना कर । सभी माया-कर्मों को दूर कर। क्योंकि मन को दुष्ट बनाने वाले विषयों द्वारा जो नहीं झुकता है, वही जिनोपदिष्ट समाधि को जानता है ।
जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे,
- समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई।
-उत्त० अ० ३२, गा० ११ जैसे प्रचुर ईंधन वाले वन में लगी हुई तथा वायु-द्वारा प्रेरित दावाग्नि शान्त नहीं होती, वैसे ही सरस एवं अधिक परिमाण में आहार करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियरूपी अग्नि भी शान्त नहीं होती।
विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ।।
-दश० अ०.८, गा० -५७ आत्म-गवेषी-आत्मान्वेषक साधक के लिए देह-विभूषा, स्त्री-संसर्ग (सम्पर्क) तथा रसपूर्ण स्वादिष्ट भोजन तालपुट विष के समान है ।
विभूसं परिवज्जेज्जा, संरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ।
-उत्त० अ० १६, गा० ६ ब्रह्मचर्य-प्रेमी साधक हमेशा अलंकार आदि की विभूषा का त्याग कर शरीर . की शोभा न बढ़ाए तथा शृंगार सजाने की कोई भी क्रिया न करे ।
सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ।
--उस० अ० १६, गा० १०
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