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________________ २१६ ब्रह्मचर्य - दर्शन करके ही प्राप्त किया जाता है, वैसे ही जीवन का मंथन करके जो धर्म प्राप्त किया बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता । अतः धर्म के क्षेत्र में तप जा सकता है, वह तप से बढ़कर अन्य कोई साधना नहीं है । तप की परिभाषा : तप क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि अपनी इच्छाओं का निरोध ही सच्चा तप है । जहाँ इच्छाओं का निरोध होता है, वहाँ ब्रह्मचर्य तो अवश्य होगा ही । तप के सम्बन्ध में धर्म-शास्त्र में यह भी कहा गया है, कि 'तप के प्रभाव से कठिन सरल हो जाता है, दुर्गम सुगम हो जाता है और दुर्लभ सुलभ हो जाता है । तप से सब कुछ साध्य है । तप के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है । यद्यपि तर की परिभाषा ( तापनात् तपः ) भी की जाती है, जिसका अर्थ है - जो तपता है वह तप है, तथापि दर्शन शास्त्र में इस परिभाषा को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया गया, कि मनुष्य के चित्त को तपाने वाली वासना भी हो सकती है, किन्तु निश्चय ही वह तप नहीं हो सकती । अतः तप की सबसे सुन्दर और लोक-भोग्य परिभाषा यह हो सकती है, कि आत्म-कल्याण और पर कल्याण के लिए कष्ट सहन करते हुए जो तपन होता है, वही वस्तुतः तप है । तप की परिसीमा : प्रश्न होता है कि तप की परिसीमा क्या है ? एक साधक के लिए जो साधारण तप है, दूसरे व्यक्ति के लिए वह एक कठोर तप हो सकता है । और कभी व्यक्ति विशेष के लिए कठोर तप भी साधारण तप हो सकता है । अतः तप की सीमा निर्धारित कैसे की जाए ? यह एक बड़ा ही जटिल प्रश्न है । उपाध्याय यशोविजय जी ने अपने 'ज्ञान-सार' नामक अध्यात्म ग्रन्थ में तप की सीमा का बड़ा ही सुन्दर अंकन किया है। उनका कहना है, कि तप एक श्र ेष्ठ वस्तु है, तप एक उत्तम धर्म है । तप धर्म का सार है और आत्म-कल्याण के लिए तप की साधना आवश्यक है । यह सब कुछ होते हुए भी यह नहीं भूल जाना चाहिए, कि साधक विशेष की अपेक्षा से उसकी एक सीमा भी है । क्योंकि सभी साधक समान शक्ति के नहीं हो सकते । शक्ति के भेद से उनकी तपः साधना में भेद आवश्यक है । यशोविजय जी ने तप की सीमा का अंकन करते हुए कहा है कि- तप उतना ही करना चाहिए जिसके करते हुए १. यद् दुस्तरं, यद् दुरापं, यद् दुर्गं यच्त्र दुष्करम् । सर्व तु तपता साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् || -- मनुस्मृति २. " तदेव हि तपः कार्य, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, चीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥ | " - ज्ञानसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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