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________________ ब्रह्मचर्य के आधार बिन्दु २११ लिए उसे सुखानुभूति अवश्य होती है, किन्तु फिर चिरकाल के लिए उसे दुःख उठाना पड़ता है। खुजलाने से खाज में रक्त बहने लगता है और फिर पीडा भी भयंकर हो जाती है । इसी प्रकार विषय-सुख के सेवन से क्षण भर के लिए स्पर्शं जन्य सुख भले ही प्राप्त हो जाए, किन्तु उस सुख की अपेक्षा व्यभिचार करने से मनुष्य को दुःख ही अधिक उठाना पड़ता है । यदि परस्त्री गमन रूप अपराध करता हुआ पकड़ा जाता है, तो समाज और राज्य उसे कठोर से कठोर दण्ड देने का विधान करता है। लोक में उसका अपवाद और अपयश फैल जाता है । कभी-कभी तो इस प्रकार के अपराधी के हाथ, पैर, कान और इन्द्रिय आदि अवयव का छेदन भी करा दिया जाता है । अब्रह्मचर्य के सेवन से प्राप्त होने वाले ये दुःख तो इसी लोक के हैं, किन्तु परलोक में तो इनसे भी कहीं अधिक भयंकर दुःख पीडा और संत्रास प्राप्त होते हैं । मैथुन, व्यभिचार और अब्रह्मचर्य के सेवन से प्राप्त होने वाले इन दुःखों का चिन्तन करने से मनुष्य मैथुन से विरत हो -जाता है, व्यभिचार का परित्याग कर देता है । आचार्य उमास्वाति ने इसीलिए कहा है कि निरन्तर दोषों का चिन्तन करो। उससे प्राप्त होने वाले दुःख और क्लेशों का बिचार करो। इस प्रकार के विचार से और मैथुन के दोष-दर्शन से वासना शान्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य का पालन सुगम हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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