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________________ ब्रह्मचर्य के प्राधार-बिन्धु साधना करने वाले साधक के लिए आवश्यक है, कि वह अनुदिन ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं का चिन्तन और मनन करे । जो साधक प्रतिदिन इन पाँच भावनाओं का चिन्तन और मनन करता है, उसकी वासना धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है । ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं १. जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुंसक रहते हों, ऐसे स्थान पर ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिए। जिस आसन एवं शय्या पर स्त्री बैठी हो अथवा पुरुष बैठा हो, तो दोनों को एक दूसरे के शय्या एवं आसन पर नहीं बैठना चाहिए । २०६ २. राग-भाव से पुरुष को स्त्री कथा और स्त्री को पुरुष की कथा नहीं करनी चाहिए | क्योंकि इससे राग-भाव बढ़ता है । ३. स्त्रियों के मनोहर अङ्ग एवं उपाङ्गों का तथा कटाक्ष और विलासों का अवलोकन नहीं करना चाहिए । राग-भाव के वशीभूत होकर बार-बार पुरुषों को स्त्रियों की ओर तथा स्त्रियों को पुरुषों की ओर नहीं देखना चाहिए । ४. पूर्व सेवित रति- सम्भोग आदि का नहीं स्मरण करना चाहिए और भविष्य के लिए भी इनकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए । ५. ब्रह्मचर्य व्रत की साधना करने वाले को, भले ही वह स्त्री हो या पुरुष, प्रणीत ( गरिष्ठ), कामोत्तेजक सरस एवं मधुर भोजन प्रतिदिन नहीं करना चाहिए। यह पाँच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं हैं। इनका निरंतर चिन्तन करते रहने से ब्रह्मचर्य स्थिर होता है । अध्याय में द्वादश आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्वार्थ - भाध्य' के नवम भावनाओं का भी अति सुन्दर वर्णन किया है । अशुचि भावना का वर्णन करते हुए कहा है कि यह शरीर अशुचि एवं अपवित्र है । क्योंकि यह शुक्र और शोणित से बना है, जो अपने आप में स्वयं ही अपवित्र हैं । इस शरीर का दूसरा आधार आहार खल आदि भागों में परिणत है । आहार भी शरीर के अन्दर पहुँच कर रस एवं होता है । खल भाग से मल एवं मूत्र बनते हैं और रस भाग से रक्त, मांस, मज्जा एवं वीर्य आदि बनते हैं । इस अशुचिता के कारण शरीर पवित्र कैसे हो सकता है ? शरीर में जितने भी अशुचि पदार्थ हैं, यह शरीर उन सबका आधार है । कान का मल, आँख का मल, दान्त का मल और पसीना ये सब शरीर के अन्दर से पैदा होते हैं और बाहर निकलकर भी शरीर को अपवित्र ही करते हैं । जो शरीर अन्दर और बाहर दोनों ओर से अशुचि एवं अपवित्र है, उसके क्षणिक रूप और सौन्दर्य पर मुग्ध होना एक प्रकार की विचार - मूढता ही है । इस शरीर का सब कुछ में परिवर्तित होने वाला है । कम से कम इस शरीर की चार अवस्थाएँ शास्त्रकारों ने मानी हैं- शैशव, यौवन, प्रौढ़ और वृद्धत्वभाव । इनं चार अवस्थाओं में कोई क्षणभंगुर है । क्षण-क्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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