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________________ २०६ ब्रह्मचर्य-दर्शन २. ब्रह्मचारी वह कार्य न करे, जिससे किसी भी प्रकार के लैङ्गिक विकार होने की सम्भावना हो। ३. कामोद्दीपक आहार का सेवन न करे । ४. स्त्री से सेवित शयन एवं आसन का उपयोग न करे । ५. स्त्रियों के अङ्गों को न देखे । ६. स्त्री का सत्कार न करे। ७. शरीर का संस्कार (शृगार) न करे । ८. पूर्व सेवित काम का स्मरण न करे। ६. भविष्य में काम-क्रीडा करने का न सोचे । १०. इष्ट रूप आदि विषयों में मन को संसक्त न करे । इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल आगम में और आगमकाल के बाद होने वाले श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्यों ने अपने-अपने समय में समाधि, गुप्ति और बाड़ों का विविध प्रकार से संक्षेप एवं विस्तार में, मूल आगमों का आधार लेकर वर्णन किया है । समाधि का अर्थ है-मन की शान्ति । गुप्ति का अर्थ है विषयों की ओर जाते हुए मन का गोपन करना, मन का निरोध करना । समाधि और गुप्ति के अर्थ में ही मध्यकाल के अपभ्रंश साहित्यकारों ने बाड़ शब्द का प्रयोग किया है । अतः तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है, कि वह उपाय एवं साधन जिससे ब्रह्मचर्य की रक्षा भली भाँति हो सके। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने कुछ अन्य उपाय भी बतलाए हैं, जिनका सम्यक् परिपालन करने से ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर नहीं रहती। इन साधनों का अवलम्बन एवं सहारा लेकर साधक सरलता के साथ ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है । यद्यपि समाधि, गुप्ति एवं बाड़ों के नियमों में सभी प्रकार के उपायों का समावेश हो जाता है, तथापि एक अन्य प्रकार से भी ब्रह्मचर्य को स्थिर बनाने के लिए उपदेश दिया गया है, जिसे भावना कहा जाता है । यह भावनायोग द्वादश प्रकार का है । उस द्वादश प्रकार के भावना-योग में ब्रह्मचर्य से सविशेष रूप से सम्बन्धित अशुचि भावना का वर्णन मूल आगम में, उसके बाद आचार्य हेमचन्द्र के 'योग-शास्त्र' में, आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में और स्वामी कार्तिकेय विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' में विस्तार के साथ किया गया है। मनुष्य के मन में जो विचार उठता है, उसी को भावना एवं अनुप्रेक्षा कहा जाता है। परन्तु प्रस्तुत में पारिभाषिक भावना एवं अनुप्रेक्षा. का अर्थ है--किसी विषय पर पुनः-पुनः चिन्तन करना, मनन करना, विचार करना । 'पुनः पुनश्चेतसि निवेशनं भावना' । आगम में शरीर की अशुचि का विचार इसलिए किया गया है, कि मनुष्य के मन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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