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________________ १४२ ब्रह्मचर्य-दर्शन है । उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्मचारी व्यक्ति को अपने गुप्त अंगों का स्पर्श बार-बार नहीं करना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में लिखा है कि-ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले व्यक्ति को किस प्रकार अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार हेमन्त ऋतु का भयङ्कर शीत. बिना अग्नि के नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार मनुष्य के मन का काम-भाव भी, बिना इन्द्रिय-निग्रह के नष्ट नहीं होता। इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने वाले प्राणियों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि हथिनी के स्पर्श सुख की अपनी लालसा को पूरा करने के लिए, हाथी शीघ्र ही बन्धन को प्राप्त हो जाता है । अगाध जल में विचरण करने वाली मछली जाल में लगे हुए लोहे के काँटे पर संलग्न मांस को खाने के लिए ज्यों ही उद्यत होती है, त्योंही वह मच्छीमार के हाथ पड़ जाती है । गन्ध में आसक्त अमर, मदोन्मत्त हाथी के कपोल पर बैठता है और उसके कान की फटकार से मृत्यु का शिकार हो जाता है। चमकती दीप-शिखा के प्रकाश पर मुग्ध होकर पतंग, ज्योंही दीपक पर गिरता है, त्योंही वह विकराल काल का ग्रास बन जाता है। मधुर गीत की ध्वनि को सुनकर हरिण, अपने पोछे आते हुए व्याध को देख नहीं पाता और उसके बाण का शिकार बन जाता है। इस प्रकार स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों में से एक-एक इन्द्रिय का विषय भी जब मृत्यु का कारण बन जाता है, तब एक साथ पाँचों इन्द्रियों का सेवन मृत्यु का कारण क्यों नहीं होगा ? अतः ब्रह्मचारी व्यक्ति को इन पाँच प्रकार के विषयों से, इनकी आसक्ति से बचते रहना चाहिए। महर्षि पतञ्जलि ने अपने 'योगदर्शन' में इन्द्रिय-निग्रह और मनोनिरोध का उपदेश देते हुए कहा कि ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को, इन्द्रियजन्य भोगों की आसक्ति से और उनके विषयों की लालसा से बचते रहना चाहिए, अन्यथा वह अपने ब्रह्मचर्य की साधना में सफल नहीं हो सकेगा। ब्रह्मचर्य की साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए, इन्द्रिय-निग्रह की अपेक्षा भी, मनोनिरोध को अधिक महत्व दिया गया है । क्योंकि मनुष्य का मन अत्यन्त वेगशोल और बड़ा ही विचित्र है। भारतीय दर्शन में मन की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मन संकल्प-विकल्पात्मक होता है । संकल्प और विकल्प मन के धर्म हैं, मन की वृत्तियाँ हैं । मनुष्य की मनोभूमि में अच्छे और बुरे, दोनों ही प्रकार के विचार पैदा होते रहते हैं । एक क्षण के लिए भो, मनुष्य का मन कभी निष्क्रिय होकर नहीं २. योग-शास्त्र, चतुर्थ प्रकाश, श्लोक २४-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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