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________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन उत्पन्न न हो, जिस तरह कि कागज को स्पर्श करने से नहीं होता।" अन्तर्मन को निर्विकार दशा- को ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य कहा गया है। जैनागमों में भी साधु-साध्वी को आपत्ति के समय आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे का स्पर्श करने का आदेश दिया गया है। साधु, सरिता के प्रवाह में प्रवहमान साध्वी को अपनी बाहुओं में उठाकर बाहर ला सकता है । असाध्य बीमारी के समय, यदि अन्य साधु-साध्वी सेवा करने योग्य न हो, तो साधु भ्रातृ-भाव से सावी को और साध्वी भगिनी-भाव से साधु की परिचर्या कर सकती है । आवश्यक होने पर एक-दूसरे को उठा-बैठा भी सकते हैं। फिर भी उनका ब्रह्मचर्य-व्रत भंग नहीं होता। परन्तु यदि परस्पर सेवा करते समय भ्रातृत्व एवं भगिनी-भाव की निर्विकार सीमा का उल्लंघन हो जाता है, मन-मस्तिष्क के किसी भी कोने में वासमा की झंकार मुखरित हो उठती है, तो उनकी ब्रह्म-साधना दूषित हो जाती है। ऐसी स्थिति में वे प्रायश्चित्त के अधिकारी बताए गए हैं। विकार की स्थिति में ब्रह्मचर्य को विशुद्ध साधना कथमपि सम्भवित नहीं रहती। इससे स्पष्ट होता है, कि आगम में साधु-साध्वी को उच्छृङ्खल रूप से परस्पर या अन्य स्त्री-पुरुष का स्पर्श करने का निषेध है। क्योंकि उच्छृङ्खल भाव से सुषुप्त वासना के जागृत होने की संभावना है, और वासना का उदय होना साधना का दोष है । अतः वासना का त्याग एवं वासना को उद्दीप्त करने वाले साधनों का परित्याग ही ब्रह्मचर्य है । वासना, विकार एवं विषयेच्छा आत्मा के शुद्ध भावों की विनाशक है । अतः जिस समय आत्मा के परिणामों में मलिनता आती है, उस समय ब्रह्म-ज्योति स्वतः ही धूमिल पड़ जाती है । 'ब्रह्मचर्य' शब्द भी. इसी अर्थ को स्पष्ट करता है। ब्रह्मचर्य शब्द का निर्माण–'ब्रह्म' और 'चर्य' इन दो शब्दों के संयोग से हुआ है। गाँधीजी ने इसका अर्थ किया है-'ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की, सत्य की शोध में चर्या अर्थात् तत्सम्बन्धी आचार ।' ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा का शुद्ध-भाव और चर्या का अभिप्राय है-चलना, गति करना या आचरण करना । शुद्ध-भाव कहिए, या परमात्म-भाव कहिए, या सत्यसाधना कहिए-बात एक ही है । सब का ध्येय यही है, कि आत्मा को विकारी भावों से हटाकर शुद्धपरिणति में केन्द्रित करना। आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्मज्योति है, पर-ब्रह्म है, अनन्त सत्य की सिद्धि है, और इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना, सत्य की साधना है, परमात्म-स्वरूप की साधना है । ब्रह्म-व्रत की साधना, वासना के अन्धकार को समूलतः विनष्ट करने की साधना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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