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________________ सिद्धान्त-खण्ड ब्रह्मचर्य की परिधि : भारतीय धर्म और संस्कृति में, साधना के अनेक मार्ग विहित किए गए हैं, किन्तु, सर्वाधिक श्रेष्ठ और सबसे अधिक प्रखर साधना का मार्ग, ब्रह्मचर्य की साधना है । 'ब्रह्मचर्य" शब्द में जो शक्ति, जो बल, और जो पराक्रम निहित है, वह भाषाशास्त्र के किसी अन्य शब्द में नहीं है। वीर्य-रक्षा ब्रह्मचर्य का एक स्थूल रूप है। ब्रह्मचर्य, वीर्य-रक्षा से भी अधिक कहीं गम्भीर एवं व्यापक है । भारतीय धर्म-शास्त्रों में ब्रह्मचर्य के तीन भेद किए गए हैं.–कायिक, वाचिक और मानसिक । इन तीनों प्रकारों में मुख्यता मानसिक ब्रह्मचर्य की है । यदि मन में ब्रह्मचर्य नहीं है, तो वह वचन में एवं शरीर में कहाँ से आएगा। जो व्यक्ति अपने मन को संयमित नहीं रख सकता, वह कभी भी ब्रह्मचर्य की साधना में सफल नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य की साधना एक वह साधना है, जो अन्तर्मन में अल्प विकार के आने पर भी खण्डित हो जाती है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने 'योग-शास्त्र' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि, "ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां वीर्य-लाभः" । इसका अर्थ है कि जब साधक के मन में, वचन में और तन में, ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो जाता है, स्थिर हो जाता है, तब उसे वीर्य का लाभ मिलता है, शक्ति की प्राप्ति होती है । ब्रह्मचर्य की महिमा प्रदर्शित करने वाले उपर्युक्त योग-सूत्र में प्रयुक्त वीर्य शब्द की व्याख्या करते हुए, टीकाकारों एवं भाष्यकारों ने वीर्य का अर्थ, शक्ति एवं बल भी किया है। __ ब्रह्मचर्य शब्द में दो शब्द हैं ब्रह्म और चर्य । इसका अर्थ है-ब्रह्म में चर्या । ब्रह्म का अर्थ है, महान् और चर्या का अर्थ है-विचरण करना, रमण करना । जब साधक अपने जीवन के क्षुद्र क्षेत्र में विचरता है, अपने आपको प्रत्येक स्थिति में क्षुद्र एवं हीन मानता है, तब उसकी चर्या, उसका गमन, ब्रह्म की ओर, परमात्म-भाव की ओर कैसे हो सकता है ? उस स्थिति में ब्रह्मचर्य का सम्यक् पालन नहीं किया जा सकता। क्योंकि क्षुद्र एवं दीन-हीन संस्कारों में जीवन की. विराटता एवं गरिमा की उपलब्धि असंभव है । क्षुद्र एवं हीन परिधि को छिन्न-भिन्न करके, पवित्र जीवन की विशालता और विराटता की ओर अग्रसर होना एवं अन्ततः उसमें रम जाना ही ब्रह्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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