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ब्रह्मचर्य का प्रभाव
१२५ भद्रं कर्णेभिः शृणुयामः शरदः शतम् ।
भद्रमक्षिण्यपि पश्यामः शरदः शतम् ॥ -प्रभो, मैं अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे करूँ, तो अपने कानों से भद्दी बातें न सुनें । भद्र बातें ही सुन्न । अच्छी-अच्छी और सुन्दर बातें ही सुन । मेरे कानों में पवित्रता का प्रवाह सर्वदा बहता रहे ।
जो बात कानों के विषय में कही गई है, वही आँखों के विषय में भी कही गई है । कोई भी मनुष्य अपनी आँखों पर पर्दा डाल कर नहीं चल सकता । आँखें हैं, तो उनके सामने अच्छे-बुरे रूप का संसार आएगा ही। फिर भी हमें अपने महान् जीवन के अनुरूप विचार करना है, कि जब भी कोई अभद्र रूप हमारे सामने आए और हम देखें, कि हमारे मन में विकारों का बहाव आ रहा है, तो हम शीघ्र ही अपनी आँखें बन्द करलें, या अपनी निगाह दूसरी ओर कर लें। आँखों के द्वारा अमृत भी आ सकता है और विष भी आ सकता है, किन्तु हमें तो अमृत ही लेना है । संसार में बैठे हैं तो क्या हुआ, लेंगे तो अमृत ही लेंगे।
एक वृक्ष है, उसमें फूल भी हैं और काँटे भी हैं । माली उनमें से फूल लेता है, कांटे नहीं लेता। हमें भी माली की तरह संसार में फूल ही लेने हैं, कांटे नहीं । संसार की अभद्रता हमारे लिए कांटे-स्वरूप है, वह ताज्य है । कोई चाहे कि सारा संसार, अच्छा बन जाए तो मैं भी अच्छा बन जाऊँ, यह सम्भव नहीं है। दुनियां में दो रंग सर्वदा ही रहेंगे । अतएव हमें इस बात का ध्यान सर्वदा हो रखना चाहिए, कि संसार अच्छा बने या न बने, हमें तो अपने जीवन को अच्छा बना ही लेना है । यह नहीं कि हजारों दीवालिए दीवाला निकाल रहे हैं, तो एक साहूकार भी क्यों न दीवाला निकाल दे ? हाँ, संसार के कल्याण के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग भी करो, मगर संसार के सुधार तक अपने जीवन के सुधार को मत रोको । संसार की बातें संसार पर छोड़ो और पहले अपनी ही बात लो। यदि आप अपना सुधार कर लेते हैं, तो वह संसार के सुधार का ही एक अंग है । आत्म-सुधार के बिना संसार को सुधारने की बात करना एक प्रकार की हिमाकत है, अपने आपको और संसार को ठगना है । जो स्वयं को नहीं सुधार सकता, वह संसार को क्या सुधार सकता है ?
यह एक ऐसा तथ्य है, कि इसमें कभी विपर्यास नहीं हो सकता । जैन इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर यह सत्य अपनी अमिट छाप लिए बैठा है । तीर्थङ्करों की जीवनियों को देखिए। जब तक वे सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं प्राप्त कर लेते, आत्मा के विकास की उच्चतम स्थिति पर नहीं पहुँच जाते, तब तक जग के उद्धार करने के प्रपंच से दूर ही रहते हैं। जब वे स्वयं शुद्ध स्थिति प्राप्त कर लेते हैं, तब कृत-कृत्य और कृतार्थ होकर जग का उद्धार करने में लग जाते हैं ।
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