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परिवर्तन ही जीवन
समाज क्या है ? व्यक्तियों के समूह या उनके पारस्परिक सम्बन्धों को हम समाज कहते हैं। जैसे अंगों और उपांगों से भिन्न शरीर नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति से भिन्न समाज का भी कहीं स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, सत्ता नहीं है। व्यक्ति ही समाज की आधारशिला है। व्यक्ति के उत्थान-पतन पर ही समाज का उत्थान पतन निर्भर है, क्योंकि एक-एक व्यक्ति के मिलने से परिवार बनता है और परिवारों का समूह आगे चलकर समाज का रूप लेता है। अतः व्यक्ति में ही समाज समाया हुआ है।
पर यह सामूहिक प्रवृत्ति तो पशुओं में भी पायी जाती है। उनके भी अपने दल होते हैं, परिवार होते हैं । तो क्या हम पशु-समूह को भी समाज कहें ? इस प्रश्न के उत्तर में पूर्वोचार्यों ने मनुष्यों के समूह को तो समाज का रूप दिया है और पशु-समूह को समज कहा है। एक मात्रा का अन्तर होते हुए भी दोनों में महान अन्तर है। ___ पशु केवल ओघ संज्ञा रखते हैं, उन्हें ज्ञान का प्रकाश नहीं मिला । अतः उनमें सामूहिक उत्थान का संकल्प नहीं है। जो एक-दूसरे का सहयोग देते हुए सामूहिक प्रगति करते हैं, आस-पास की जिन्दगियों को उठाते हुए उनके दुःख-सुख के साझीदार बनते हैं, उनका समूह समाज कहलाता है। क्षुद्र स्वार्थों और अपने आप तक ही सीमित रहने वाले व्यक्तियों का समूह समाज नहीं कहा जा सकता । पशुओं के समूह में से कोई लूला-लंगड़ा पशु पीछे रह जाए, तो वे उसकी परवाह नहीं करते, इसी प्रकार मनुष्य का दल भी अपने पिछड़े हुए साथी की उपेक्षा करके आगे बढ़ जाए तो वह समाज नहीं कहलाएगा। समाज में सहयोग की भावना और सहायता की प्रवृत्ति होती है, एवं जीवन विकास की योजना होती है। समाज-सुधार :
युग परिवर्तन के साथ समाज में कुछ विकृतियाँ भी आती रहती हैं, उन विकृतियों से समाज को मुक्त करना ही समाज-सुधार है। समाज-सुधार का अर्थ हैं-व्यक्तियों एवं परिवारों में फैले हुए दोषों को दूर करना। पहले व्यक्ति को सुधारना होगा और फिर परिवार को। जब दोनों ही मुक्त हो जाएँगे, तो समाज स्वयमेव सुधर जाएगा।
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