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अस्तेय दर्शन / ८५
पेड़ को हरा-भरा और सजीव बनाने के लिए आपको जड़ों में पानी देना होगा । यदि आप पत्तों पर पानी छिड़क कर पेड़ को हरा-भरा रखना चाहें, तो यह कभी सम्भव नहीं । आज समाज को भी अन्दर से सुधारने की आवश्यकता है, ऊपर से नहीं। अन्दर से सुधारने का अर्थ है- सर्वप्रथम अपने व्यक्तिगत जीवन की बुराइयों
दूर करना । यदि समाज-सुधारक अपने व्यक्तिगत जीवन में गलत विचारों, गलत मान्यताओं और गलत व्यवहारों को ठुकरा देता है, तो एक दिन वे परिवार में से भी ठुकरा दी जाएँगी और फिर समाज में से भी निकल जाएँगी।
आप समाज की विकृतियों को दोषों के रूप में स्वीकार करते हैं, समाज की कुरूढ़ियों को समाज के लिए राहु के समान समझते हैं और यह भी मानते हैं कि उनसे मुक्ति पाने में ही समाज का कल्याण है, किन्तु आप स्वयं इन कुरूढ़ियों को ठुकराने का साहस नहीं रखते। यदि आप यह सोचते हैं, कि पहले दूसरे व्यक्ति क्रांति करें, तो मैं भी आगे बढूँ, पर अकेला क्या कर सकता हूँ ? तो ऐसी दुर्बलता से समाज का कल्याण नहीं हो सकता । समाज-सुधार के लिए सबल मनोवृत्ति और साहस की आवश्यकता है।
वर्तमानकालीन समाज में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं, प्रारम्भ में लोगों ने अवश्य ही इनका विरोध किया होगा और इन्हें अमान्य किया होगा । किन्तु तत्कालीन समाज के दीर्घ द्रष्टा नायकों ने साहस करके इन्हें अपना लिया और फिर धीरे-धीरे ये रीति-रिवाज सर्वमान्य हो गए। उस समय इनकी बड़ी उपयोगिता रही होगी। पर आज युग बदल गया है और समय के साथ ही इन रीति-रिवाजों में भी बहुत विकार आ गए हैं। समाज की परिस्थितियाँ भी अब बदल चुकी हैं और अब ये रीति-रिवाज अनुपयोगी सिद्ध हो चुके हैं। रीति-रिवाजों का यह हार किसी युग में समाज के लिए अलंकार बना हुआ था, वही आज बेड़ी बन गया है। इन बेड़ियों में जकड़ा हुआ समाज आज मुक्ति के लिए छटपटा रहा है। पर जब उनमें परिवर्तन करने की बात आती है, तो लोग कहते हैं कि पहले समाज निर्णय कर ले, फिर हम भी अपना लेंगे । परिवर्तन ही जीवन है :
कई लोग यह भी कहते हैं कि क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे, जिन्होंने यह रीति-रिवाज चलाए ? पूर्वजों के प्रति आस्था अवश्य होनी चाहिए। पर कहने वाले यह
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