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________________ ८२/ अस्तेय दर्शन किसी तरह और कोई किसी तरह अन्न लाता है। जहाँ कहीं भी वह बुरी भावनाओं से लाया और खाया जा रहा है, वह उसी परिवार के विचारों को बर्बाद करता है। दूसरे अज्ञात व्यक्तियों को खाने मात्र से ही पापी या दुराचारी बनाता हो, यह बुद्धिसंगत नहीं है। अगर इस प्रकार से विचार बुरे होने लगें तो धर्मात्मा के घर से ठेका कर लिया जाय। और जैसे मछलियों को राम-नाम की गोलियाँ डाली जाती हैं, उसी प्रकार सब को धर्मात्मा के घर के अन्न की गोलियाँ खिला कर धर्मात्मा बना दिया जाय । हाँ, अगर कोई साधु जान-बूझ कर चोरी का अन्न खाता है, तो वह गलत चीज है। किन्तु जो उस चोरी के समर्थन में नहीं है, उस पर भी कोई बुरा प्रभाव पड़ता है, यह कोई सिद्धान्त नहीं है। एक प्रश्न यह भी है कि जो व्यक्ति, समाज को देता तो कम से कम है, और समाज से लेता अधिक से अधिक है, वह चोरी करता है या नहीं ? - प्रश्न ठीक है और इसका उत्तर यही है कि मनुष्य जीवन ऐसा जीवन है कि उसमें कम से कम लिया जाय और अधिक से अधिक दिया जाय। थोड़ी देर के लिए ऐसे समाज की कल्पना कीजिए, जिस का प्रत्येक व्यक्ति लेना अधिक चाहता हो, परन्तु देना न चाहता हो, क्या ऐसा समाज कभी सुखी और सन्तोषयुक्त बन सकता है ? नहीं, ऐसे समाज में शीघ्र ही असन्तुष्टि की ज्वालाएँ भड़क उठेगी और प्रत्येक व्यक्ति की सुख-शान्ति खतरे में पड़ जाएगी। इसके विपरीत, जिस समाज के व्यक्ति लेना कम और देना अधिक चाहेंगे, वही समाज सुखी बन सकेगा। ____ अचौर्यव्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है और देश, समाज तथा व्यक्ति के जीवन के उत्थान में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अगर हम अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों को भी ध्यान में रक्खें तो मालूम होगा कि यह भी चोरी है और वह भी चोरी है, यहाँ भी चोरी है और वहाँ भी चोरी है। और इस प्रकार सारे राष्ट्र का जीवन चोरी से लथपथ है। यों तो मनुष्य में चोरी की वृत्ति चिरकाल से ही चली आ रही है, परन्तु मेरा ख्याल है, पिछले कुछ वर्षों से यह वृत्ति हमारे देश में बड़ी तेजी के साथ बढ़ी है। चोरी के पिछले कई रूपों को बेहद उत्तेजना मिली है, जैसे रिश्वत खोरी और 'ब्लैक मार्केट' को। खेद की बात तो यह है कि अनेक बड़े-बड़े पूँजीपति इस चौर्यवृत्ति के सबसे अधिक शिकार हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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