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________________ अस्तेय दर्शन। जैन सिद्धान्त नहीं कहता । जैन सिद्धान्त यह भी नहीं कहता कि उसका अन्न खाने के कारण उनके मन में भी चोरी करने के विचार उत्पन्न हो जाएंगे। पापी का अन्न अगर बुरे विचार उत्पन्न करता है तो धर्मात्मा का अन्न अच्छे विचार उत्पन्न करेगा। तब तो जनता के विचारों को सुधारने का सस्ता नुस्खा हाथ लग गया। किसी धर्मात्मा के घर से लाए आटे की गोलियाँ बनाओ और सब को बाँटते चलो। लोग खाते जाएँगे और अच्छे विचार वाले बनते जाएँगे। क्या यह बात आपके दिमाग को अपील करती है ? क्या किसी भी सिद्धान्त से इसका समर्थन होता है ? अन्न के पीछे दुर्भावनाओं का जो संग्रह है, वही पाप को पैदा करता है, उस अन्न या पानी में पाप नहीं है, जिससे कि हमारे पेट में पाप का कचरा चला जाय ! इस प्रकार पाप लगने लगें तो किसी के भी ऊँचे विचार नहीं टिक सकते। अन्न को इतना महत्त्व मिला है कि जात-पात में भी वह विशेष महत्त्व की चीज बन गया है। वैदिक साधुओं में दंडी संन्यासी होते हैं । वे भिक्षा के लिए केवल ब्राह्मण के घर ही जाते हैं। उसके घर के अन्न को ही शुद्ध अन्न मानते हैं और कहते हैं-यह अन्न विचारों और भावनाओं को शुद्ध करेगा। दूसरों के यहाँ का अन्न ठीक नहीं है। उनके यहाँ का खाया हुआ अन्न हमारे विचारों को अशुद्ध बना देगा। इस प्रकार अन्न के प्रश्न को लेकर जात-पाँत का भेद-भाव बड़ा विकट रूप धारण कर गया है, उसकी जड़ें लोक मानस में बहुत गहराई तक जा पहुँची हैं। सुनार तथा सन्त: एक कहानी प्रचलित है। किसी सन्त ने सुनार के यहाँ से अन्न ला कर खा लिया तो उसके मन में चोरी के विचार आने लगे। जब उसने अपने विचारों के कारण को सोचा तो मालूम हुआ कि वह सुनार के यहाँ से अन्न लाया था और यह उसी अन्न का प्रभाव है कि उसके मन में ऐसे गंदे विचार उत्पन्न हुए हैं। और उसने उसी समय उल्टी कर उस अन्न को पेट के बाहर निकाल दिया। बस, उसको अच्छे विचार आने लगे। ठीक है, यह एक कथा है ; मगर इस कथा में कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं है। जात-पात की संकीर्ण मनोभावना ही इसकी पृष्ठभूमि है। किन्तु किसी जाति के सभी लोग समान आचार-विचार वाले नहीं होते। कोई-कोई ब्राह्मण भी चोरी करते हैं, कई क्षत्रियों के यहाँ भी न जाने कितने अन्याय का अन्न आता है, और दूसरों में भी कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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