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________________ अस्तेय दर्शन/५१ अतः जो वास्तव में अधिकार देने के योग्य था, पात्र था, उसे अधिकार न देकर दूसरे अपात्र को अधिकार देना, अपने कर्तव्य से च्युत होना है और ऐसा करना चोरी है। एक छोटी-सी बात पर विचार कीजिए। आप देखते हैं कि आज देश की स्थिति कितनी भयंकर है ? एक-एक अन्न का दाना सोने के दाने से भी कहीं अधिक महँगा हो गया है। चारों ओर से भुखमरी की खबरें आ रही हैं । पैनी आँखों से देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि देश एक भीषण दुष्काल के किनारे खड़ा है। प्रायः सर्वत्र अन्न के लिए हाहाकार मचा हुआ है। देश के जो बालक, बूढ़े और नौजवान हैं, वे अन्न के अभाव में तड़फ रहे हैं। वे शरीर से ही नहीं मर रहे हैं, किन्तु अपनी आत्मा की दृष्टि से भी मर रहे हैं। वे आर्तध्यान और रौद्रध्यान से मर रहे हैं, अपनी संस्कृति से मर रहे हैं। देश के आदमी भूख से तिलमिलाते हुए मरते हैं, उच्च वर्ग के धनी लोगों की लोलुपता या उपेक्षा के कारण मरते हैं, तो मैं समझता हूँ, यह राष्ट्र के लिए. बड़ा भारी कलंक है। यदि कोई आदमी केवल एक दिन भी लाचारी से भूखा रहता है, तो यह बात भी राष्ट्र के लिए कलंक है। फिर भला जहाँ हजारों और लाखों की यह हालत हो वहाँ तो कहना ही क्या है ? उस राष्ट्र के लिए 'कलंक' से बढ़कर कोई दूसरा ही अपवित्र शब्द खोजना चाहिए। इसी तरह एक आदमी को नंगा रहना पड़ता है, फुट-पाथ पर सोना पड़ता है, कड़ाके की सर्दी पड़ रही है और वह कपड़े के अभाव में ठिठुर रहा है, तो यह भी देश के लिए बड़ा भारी कलंक है। ' हाँ, तो आज समाज के सामने यह महान् प्रश्न खड़ा है और उत्तर मांगता है कि उसे क्या करना चाहिए ? एक तरफ तो यह दुर्दशा है और दूसरी तरफ हजारों मन अनाज धर्म के नाम पर चुगाया जा रहा है, उन पक्षियों को, जो स्वतन्त्र विचरण करने चाले हैं, जो अपने जीवन को कहीं पर भी और किसी भी रूप में चला सकते हैं, जिनकी उड़ान बहुत दूर तक है, और जो जंगल की सामग्री से भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह कर सकते हैं। इस प्रसंग पर हमें अपने अन्तर विवेक से आदेश प्राप्त करना चाहिए। मैं यह नहीं कहता है कि पक्षियों को अन्न न चुगाएँ, मैं यह भी नहीं कहता कि ऐसा करने में असंयमी का पोषण होने के कारण एकान्त पाप है, मेरा यह भी कहना नहीं है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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