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________________ अस्तेय दर्शन / ४९ साधु परिव्राजक हैं, एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते रहते हैं । आपके व्यावर जैसे क्षेत्र में आने पर तो उन्हें आवश्यकता के अनुसार आहार मिल सकता है, मगर सभी जगह ऐसे क्षेत्र नहीं हैं । देशाटन करते समय, कभी-कभी ऐसे क्षेत्रों में भी जाना पड़ता है, जहाँ उन्हें आवश्यकता से बहुत ही कम आहार मिलता है। जब इस तरह कम आहार मिलता है और वह सब साधुओं के लिए पर्याप्त नहीं होता तो विचार कीजिए कैसे उसका बंटवारा करें ? शास्त्रों में मर्यादा बतलाई है कि सबसे पहले जो अशक्त है, बीमार है, चल नहीं सकता है, उसे दीजिए। फिर जो बच रहे तो इसमें से बालक तथा वृद्ध साधु को दीजिए। उस से भी बच रहे तो जो ज्ञानी हैं, लोगों को प्रबोध देने वाले हैं, उन्हें दे देना चाहिए। और फिर जो बच रहे तो वह उन साधुओं को मिलना चाहिए, जो सशक्त हैं और भूख को बर्दाश्त कर सकते हैं । इस रूप में आहार को वितरण करने का विधान है। इस व्यवस्था में उलट-फेर कर दिया जाय और 'मैं बड़ा हूँ, अतएव मेरा अधिकार पहले है' ऐसा विचार कर कोई साधु खाने बैठ जाय और तपस्वी, म्लान, बालक या बूढ़े आदि का ध्यान न रक्खे तो उसका ऐसा करना चोरी है, क्योंकि उसने उनके अधिकार का अपहरण किया है। प्रश्न हो सकता है-इसमें चोरी क्या है ? साधु गृहस्थ का दिया हुआ लाये हैं, छीन कर तो नहीं लाये हैं ; फिर इसे चोरी कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि गृहस्थ के घर से दिया हुआ लाये हैं. अतः वह गृहस्थ की चोरी नहीं है ; किन्तु साधुसंघ में से ही जिसके अधिकार की वस्तु का उपयोग किया है, उसकी चोरी है । बँटवारा करते समय वह चोरी की गई है। शास्त्रकारों का साधु-जीवन के लिए यह सुन्दर विश्लेषण है। इसे मैं आपके जीवन में भी घटाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अस्तेय और दान : हाँ, तो आपको दान की कला समझना है। दान के गंभीर भाव को ध्यान में रखना है। ऐसा करने पर ही आपका जीवन ऊँचाई पर पहुँच सकता है। आप दान दें और अवश्य दें, मगर जब भी दें, विचारपूर्वक दें-योग्य अधिकारी का ध्यान रख कर दें। आज भी दान दिया जाता है। जैन भी देते हैं और अजैन भी देते हैं। उस दान की बदौलत बहुत बड़ा काम हो रहा है। अतएव दान के प्रति जनता में जो सद्भावना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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