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________________ रक्खी जाय तो व्यापारी का पद नीचे गिरता चला जायगा । आपको एक बात विशेष रूप से ध्यान में लेनी है। जैन सभ्यता, जिसे हम मानव-जगत् की सभ्यता कहते हैं, उसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव से हुआ। उससे पहले तो युगलियों का काल था। युगलियों के काल में न कोई व्यापारी था, न ग्राहक था। उत्पादन के ढंग थोड़े थे और जीवन की आवश्यकताएँ थोड़ी थीं और अनायास अस्तेय दर्शन / १३ उनकी पूर्ति हो जाती थी। किन्तु जब आवश्यकताएँ आगे बढ़ीं और परम्परागत उत्पादन का क्रम कम पड़ गया तो मनुष्य के दिमाग में एक संघर्ष पैदा हुआ। उस समय भगवान् ऋषभदेव हमारे जीवन के मंगल के रूप में नजर आये। उन्होंने उस समय की पीड़ित जनता के सामने एक महत्त्वपूर्ण आदर्श रक्खा, कि पुरुषार्थ करो । जो कुछ भी तुमको पाना है, उसके पीछे ऐसे मत रहो कि वह यहीं कहीं पड़ा हुआ मिल जाय अथवा दूसरे उत्पादन कर दें और हम उसका उपभोग कर लें । यह जीवन की प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती रही है, किन्तु बदलते - बदलत अब जीवन की परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं, फलतः मनुष्य के सामने बहुत बड़ा परिवार और समाज बनता चला आ रहा है। अब एक का नहीं, किन्तु लाखों का सवाल सामने है। उनका पेट भरने और भराने की समस्या है। ऐसी स्थिति में भाग्य पर नहीं, अपने हाथों-पैरों और पुरुषार्थ पर भरोसा रखना है। हमारे पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा इसी में है । जैनधर्म का साहित्य महान् है और अब भी मौजूद है। और जिस रूप में मौजूद है वह आज से नहीं हजारों वर्षों से भगवान् ऋषभदेव के पुरुषार्थ के महत्त्व की बात कहता चला आया है, जो उन्होंने मानव जाति को सिखलाया था । तत्कालीन मानव-जीवन में वह एक बहुत बड़ी क्रान्ति का मंगलमय संदेश था । धर्म और कृषि : पर इस रूप में असि, मसि और कृषि के धंधे आये ! बोलने में हम ऐसा बोलते हैं, वास्तव में पहले कृषि आई, फिर मसि आई और बाद में रक्षा के लिए असि, तलवार आई। थोड़ा विचार कीजिए कि जब कृषि उत्पादन ही नहीं हो तो हिसाब- हिताब किसका किया जायगा ? अतएव सर्वप्रथम कृषि है। कृषि के द्वारा जब एक जगह धान्य इकट्ठा हो जाता है और दूसरी जगह न होने से वहाँ उसकी आवश्यकता होती है और उसके अभाव में जनता भूखी रहती है, तब व्यापारी के द्वारा धान्य एक जगह से दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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