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________________ भाव चारित्र : हमारे जीवन में जो मूलभूत तत्त्व है, वह आन्तरिक चारित्र ही है, उसे आत्मशुद्धि कहो, निष्कलुष मनोवृत्ति कहो, भाव चारित्र कहो या निश्चय चारित्र कह लो । उसे कुछ भी नाम दे लो, व्रत-नियम की आत्मा वही है । उसी के अस्तित्व में व्रतों और नियमों की सार्थकता है । व्रत और नियम तो खेत की रक्षा के लिए खड़ी की जाने वाली बाड़ के समान हैं। खेत की रक्षा के लिए ही बाड़ लगाई जाती है। खेत खाली पड़ा हो तो बाड़ किस काम की ? इसी प्रकार अगर भीतर चारित्र नहीं है, तो व्रत नियमों की प्रतिज्ञा की क्या सार्थकता है ? अस्तेय दर्शन / ११ अस्तेय व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करने वाले साधक को इस तथ्य का ध्यान रखना है। आन्तरिक चारित्र की नींव पर अस्तेय की प्रतिज्ञा का भवन खड़ा किया जाना चाहिए। तभी वह टिकाऊ होगा। इसी आशय को व्यक्त करने के लिए आज यह भूमिका तैयार की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only अजमेर व्यावर, २०-१०-५० । www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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