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________________ अस्तेय दर्शन/५ अंधकार में निमग्न कर देते है। उस समय वह सहज भाव, अपने आप में चलने का भाव, पैदा नहीं होता और ऐसी-ऐसी कलमें तैयार कर लेते हैं कि स्वयं तैयार करने बालों से भी उनका पालन नहीं होता और न दूसरों से उनके पालन कराने की संभावना होती है। ऐसी दशा में फिर गड़बड़ में पड़ते हैं और तब माया में से माया चल पड़ती है। शास्त्रों के पन्ने पलटे जाते हैं और पलटने का उपदेश दिया जाता है, मगर इस बात का कोई ख्याल नहीं किया जाता कि अन्तर में पशुत्व-भावना पैदा होती जा रही है ! शास्त्रों में नरक-गति, तिर्यञ्च-गति, मनुष्य-गति और देवगति के जो कारण बतलाये गये हैं, वे इसी जीवन में होते हैं। इस जीवन में अगर पशुत्व भावना पैदा हो गई है तो आगे चल कर पशु की ही योनि मिलने वाली है और यदि देवत्व का भाव आया है तो देवगति मिलने वाली है। माया तैर्यग्योनस्य। - तत्त्वार्थसूत्र पशु जीवन का कारण : माया तिर्यञ्चगति का कारण है, अर्थात् पशुत्व की ओर ले जाती है। माया पशुत्व को उत्पन्न करने वाला चक्र है। इस प्रकार आगामी जीवन के अनुरूप वृत्ति यहीं उत्पन्न हो जाती है। आगे जो गधा या घोड़ा बनना है, सो वास्तव में तो यहीं बनना है। जब मनुष्य के शरीर में ही पशुत्व भावना उत्पन्न हो जाती है तो मनुष्य उसी रूप में, उसी शरीर में ही उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि आन्तरिक चारित्र बल के अभाव में दंभ एवं मायाचार बढ़ता है और वह मनुष्य को पशुता की ओर ले जाता है। दंभी मनुष्य अपने प्रति वफादार नहीं रहता और जब वफादार नहीं रहता तो दंभ इतना ऊँचा चलता है कि कुछ ठिकाना नहीं । अन्दर में कुछ भी नहीं होता और बाहर में सभी कुछ दिखलाया जाता है। बौद्ध साहित्य की एक घटना : ___ एक सेठ बड़ा धनवान् और वैभवशाली था। उसके यहाँ एक संत आये। वे सेठ से बोले-'मुझे आपके यहाँ चातुर्मास करना है। चौमासे का समय आ गया है, अब मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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