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________________ अस्तेय दर्शन / १०१ जनसंख्या और बढ़ती गई तो क्या खिलाएंगे? उचित कर्म और श्रम राष्ट्र की समृद्धि बढ़ाता जाता है, जीवन में सुख का द्वार खोलता जाता है। ऋग्वेद के ऋषि ने तो श्रम और कर्म के प्रतीक हाथ को ही भगवान् के रूप में देखा है। अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगक्तर : । अयं मे विश्वभेषजो ऽयं शिवाभिमर्शन : ॥ यह मेरा हाथ ही भगवान् है, भाग्य का निर्माता है और भगवान् ही क्या, भगवान् से भी श्रेष्ठ हैं। यह हाथ ही विश्व के समस्त रोगों की औषधि है, इसके स्पर्श मात्र से सृष्टि के सब संकट दूर होकर कल्याण का द्वार खुल जाता है। .. ___ मैं देखता हूँ, आज जनता में श्रम-निष्ठा की कमी होती जा रही है, कर्म करने की वृत्ति दुर्बल होती जा रही है, और साथ ही आवश्यकताएँ निरन्तर बढ़ रही हैं । जीवन का स्तर बढ़ रहा है। इच्छाएँ प्रतिस्पर्धा का रूप ले रही है। इच्छा अहंकार का रूप : मैंने बताया आपसे, कि इच्छा और आवश्यकता में अन्तर करना होगा। भूख लगती है, तो उसे शान्त करने के लिए रोटी चाहिए, वह रोटी चाहे पत्तल में मिले या थाली में । हमें तो भूख शान्त करनी है। मगर जब प्रश्न रोटी का नहीं, किन्तु थाली का अड़ जाता है, थाली पीतल की चाहिए, या चाँदी की चाहिए। यहाँ क्षुधा पूर्ति का प्रश्न नहीं रहता, किन्तु अहंकारपूर्ति का प्रश्न आ जाता है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को यह अहंकार का प्रश्न ही परेशान करता है। व्यक्ति के अन्तरतम् को कचोटता रहता है ; उसे कभी शांत नहीं रहने देता। स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्र में जो समस्याएँ पैदा हुई हैं, तथा व्यक्ति आज पहले से अधिक क्षुब्ध एवं अशांत प्रतीत होता है, और इस क्षोभ के मारे स्वराज्य को, स्वतन्त्रता को कोसने लगा है, उसका कारण भी यही है, कि व्यक्ति की इच्छाएँ आकांक्षाएँ बहुत तीव्र हो गई हैं, और उनकी पूर्ति होना बहुत कठिन है। जैसा कि अक्षय जी ने कहा-हमने स्व-राज्य से बहुत ज्यादा आकांक्षाएँ की, और उनकी पूर्ति कर पाना किसी भी नवोदित राष्ट्र के लिए आसान नहीं है, इसीलिए जनता को स्वराज्य से निराशा हुई है और आज वह अशान्त, क्षुब्ध और बौखलाई हुई-सी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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