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अस्तेय दर्शन / ९९
छान्दोग्य उपनिषद् में एक संवाद आता है। कुछ ऋषि एक देश की सीमा से होकर सीधे आगे निकल जाते हैं। उस देश के राजा को जब मालूम होता है, कि वे हमारे जनपद से बाहर-बाहर चले जा रहे हैं, तब राजा आकर ऋषियों से प्रार्थना करता हैं- "मेरे जनपद में ऐसा क्या दोष है ? क्या बुराई है ? कि आप उसे यों छोड़कर सीधे ही बाहर चले जा रहे हैं ?" राजा ने अपने देश का भव्य चित्र उपस्थित किया
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्य्यो न मद्यप: । नानाहिताग्निर्ना विद्वान न स्वैरी स्वैरिणी कुत: ?
मेरे देश में कोई चोर-उच्चके नहीं रहते। कृपण और कंजूस भी नहीं रहते जो कि देश के कलंक होते हैं, और जो समृद्धि को बटोर कर उस पर साँप बने बैठे रहते हैं, मेरे जनपद में नहीं हैं। श्रीमान् अपनी समृद्धि का देश के हित में नियोजन करने वाले हैं। कोई शराबी और दुराचारी नहीं है। असंस्कारी मूर्ख और अनपढ़ लोग भी नहीं है। स्वेच्छाचारिता और उच्छृंखलता भी मेरे जनपद में नहीं है, तब फिर क्या कारण है, कि आप उसे यों ही छोड़कर आगे चले जा रहे हैं । "
मैं समझता हूँ, राजा ने अपने राष्ट्र का एक सच्चा प्रतिबिम्ब ऋषियों के समक्ष प्रस्तुत किया है । रामराज्य का कोई रूप हो सकता है, तो यह एक रूप है। आदर्श राज्य की यह एक परिभाषा है। जिस देश में चोर और तस्कर नहीं, जनता श्रम करके, धनोपार्जन जरूर करती हो, किन्तु उस धन और समृद्धि का उपयोग अपने स्वार्थ और सुख चैन के लिए नहीं, किन्तु राष्ट्र के समृद्धि के लिए करती हो, वह देश कितना महान् हो सकता है ! जैसा कि अक्षय जी ने कहा- अमेरिका और रूस की जनता में एक राष्ट्रीय सभ्यता का रूप मिलता है, वह रूप उस सम्राट के शब्दों में भी आया है - ''नानाहिताग्निर्नाविद्वान् कोई भी असंस्कारी, असभ्य और मूर्ख नहीं है । अनुशासनहीनता की कोई शिकायत जिस देश में नहीं होती हो, वह देश कितना आदर्श देश हो सकता है, आप कल्पना कीजिए। मेरे विचार में यह एक आदर्श राष्ट्र का चित्र है और वह रामराज्य का एक सुन्दर प्रतीक भी है
कर्म और श्रम :
गाँधीजी के रामराज्य का स्वप्न क्या था, वे जीवित रहते तो उसे क्या रूप देते
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