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९२/ अस्तेय दर्शन
भारतीय चिंतन ने मनुष्य के जिस विराट रूप की परिकल्पना की थी 'सहसशीर्षा पुरुषः सहस्राक्ष : सहसपात्' वह आज कहाँ है ?
हजारों-हजार मस्तक, हजारों-हजार आँखें और हजारों-हजार चरण मिलकर जिस अखण्ड नानवता का निर्माण करते थे, जिस अखण्ड राष्ट्रीय चेतना का विकास होता था, आज उसके दर्शन कहाँ हो रहे हैं ? आज की संकीर्ण मनोवृत्तियाँ देखकर मन कुलबुला उठता है, कि क्या वास्तव में ही मानव इतना क्षुद्र और इतना दीन-हीन होता जा रहा है, कि अपने क्षुद्र स्वार्थों और अपने कर्तव्यों के आगे पूर्ण विराम लगाकर बैठ गया है। आपसे आगे आपके पड़ोसी का भी कुछ स्वार्थ है, कुछ हित है। समाज, देश और राष्ट्र के लिए भी आपका कोई कर्तव्य होता है, इसके लिए भी सोचिए । चिन्तन के द्वार खुले रखिए। आपका चिन्तन, आपका कर्त्तव्य, आपका हित आपके लिए केवल बीच के अल्पविराम से अधिक नहीं है, अगर आप उसे ही पूर्ण विराम समझ बैठे हैं, इति लगा बैठे हैं, तो यह भयानक भूल है। भारत का दर्शन 'नेति नेति'. कहता आया है। इसका अर्थ है, कि जितना आप सोचते हैं, और जितना आप करते हैं, उतना ही सब कुछ नहीं है, उससे आगे भी अनन्त सत्य है, कर्त्तव्य के अनन्त क्षेत्र पड़े हैं। मगर आज हम यह संदेश भूलते जा रहे हैं और हर चिन्तन और कर्त्तव्य के आगे "इति-इति" लगाते जा रहे हैं । यह क्षुद्रता यह,बौनापन आज राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा संकट है। भ्रष्टाचार किस संस्कृति की उपज है : ___ मैं देखता हूँ-आजकल कुछ शब्द चल पड़े हैं- "भ्रष्टाचार, बेईमानी, मक्कारी, कालाबाजारी, यह सब क्या है ? किस संस्कृति की उपज है यह ? जिस अमृत कुण्ड की जलधारा से सिंचन पाकर हमारी चेतना और हमारा कर्तव्य क्षेत्र उर्वर बना हुआ था, क्या आज वह धारा सूख गई है, ? त्याग, सेवा, सौहार्द और समर्पण की फसल जहाँ लहलहाती थी, क्या आज वहाँ स्वार्थ, तोड़-फोड़, हिंसा और बात-बात पर विद्रोह की कँटीली झाड़ियाँ ही खड़ी रह गई हैं ? देश में आज बिखराव और अराजकता की भावना फैल रही है, इसका कारण क्या है ?
मैं जहाँ तक समझ पाया हूँ इन सब अव्यवस्थाओं और समस्याओं का मूल है-हमारी आदर्श-हीनता । मुद्रा के अवमूल्यन से आर्थिक क्षेत्र में जो उथल-पुथल हुई
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