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________________ सम्पादकीय तीर्थंकर महावीर की वाणी को द्वादशांगी और गणि-पिटक कहा गया है। प्रश्न व्याकरण की गणना इसी में की है। अतः प्रश्न व्याकरण भगवान् महावीर की मूल वाणी है, उसमें दो विभाग है-पञ्च आसव द्वार और पञ्च संवर द्वार । आस्रव ये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह। इनको ही हिंसा, असत्य, चोरी, जारी और परिग्रह कहा गया है। संवर ये हैं-प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण । इनको ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह कहा है। उपासक दशांग में श्रावक के द्वादश व्रतों का विधान किया है। पञ्च अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं। गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को मिलाकर इन सप्तव्रतों की एक संज्ञा शीलव्रत होती है; अणुव्रतों की संज्ञा मूलव्रत कही है। श्रावक के अणुव्रत, श्रमण के महाव्रत होते हैं । अणुव्रतों को देश व्रत कहते हैं, महाव्रतों को सर्वव्रत कहा है। उपांग सूत्र औपपातिक में भी श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है। अणुव्रत हों, या महाव्रत हों, दोनों का समावेश संवर द्वार में होता है। व्रत, यम, नियम, संयम और संवर सब पर्यायवाचक शब्द हैं । आगमोत्तर काल के आचार्यों ने भी इसी व्यवस्था को स्वीकार कर के अपने ग्रन्थों में श्रावक के द्वादश व्रतों का और श्रमण के महाव्रतों का कथन किया है। क्रम और नामों में परिवर्तन हो सकता है। आगमोत्तर काल के ग्रन्थों में तत्त्वार्थ सूत्र का सर्वाधिक महत्त्व रहा है । तत्त्वार्थ सूत्र समस्त परम्पराओं को मान्य है, इसकी प्रामाणिकता आगम तुल्य है। वाचक उमास्वाति ने इसमें समस्त आगमों का सार भर दिया है। स्वयं वाचक जी ने अपने सूत्रों पर भाष्य लिखा है। भाष्य पर आचार्य सिद्ध सेन गणि ने महाभाष्य लिखा है, जो अति गम्भीर है। राष्ट्र सन्त, कविरत्न, उपाध्याय, परम पूज्य गुरुदेव, श्रद्धेय अमर चन्द्र जी महाराज ने राजस्थान के प्रसिद्ध नगर व्यावर में सन् १९५० में, उपासक आनन्द पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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