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________________ ५८ ७. ८. हिंसे बाले मुसावाई अद्धामि विलोवए । अन्नदत्तहरे तेणे माई करे सढे ॥ इत्थीविसयगिद्धे य महारंभ - परिग्गहे । भंजमाणे सरं मंसं परिवूढे परंदमे ॥ अकक्कर - भोई य दिल्ले चिलोहिए । आउयं नरए कंखे जहाएस व एलए । आसणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुंजिया । दुस्साहडं धणं हिच्चा बहु संचिणिया रयं ॥ तओ कम्मगुरू जन्तू पच्चुप्पन्नपरायणे । अव्व आगया मरणन्तंमि सोयई ॥ १०. तओ आउपरिक्खीणे या देहा विहिंसगा | आसुरियं दिसं बाला गच्छन्ति अवसा तमं ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र हिंसक, अज्ञानी, मिथ्याभाषी, मार्ग लूटनेवाला बटमार, दूसरों को दी हुई वस्तु को बीच में ही हड़प जाने वाला, चोर, मायावी ठग, कुतोहर - अर्थात् कहाँ से चुराऊँ - इसी विकल्पना में निरन्तर लगा रहने वाला, धूर्त - स्त्री और अन्य विषयों में आसक्त, महाआरम्भ और महापरिग्रह वाला, सुरा और मांस का उपभोग करने वाला, बलवान्, दूसरों को सताने वाला- बकरे की तरह कर-कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खाने वाला, मोटी तोंद और अधिक रक्त वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, जैसे कि मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है 1 आसन, शय्या, वाहन, धन और अन्य कामभोगों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किए धन को छोड़कर, कर्मों की बहुत धूल संचित कर केवल वर्तमान को ही देखने में तत्पर, कर्मों से भारी हुआ जीव मृत्यु के समय वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है । नाना प्रकार से हिंसा करने वाले अज्ञानी जीव आयु के क्षीण होने पर जब शरीर छोड़ते हैं तो वे कृत कर्मों से विवश अंधकाराच्छन्न नरक की ओर जाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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