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________________ सम्पादकीय आगमिक जैन वाङ्मय ज्ञान का एक विराट सागर है। इतना विराट कि उसका किनारा शब्द पाठ से तो पाया जा सकता है, किन्तु भाव की गहराई में तल को नहीं छुआ जा सकता। ऊपर-ऊपर तैर जाना एक बात है, और चिन्तन की गहरी डुबकी लगाकर अन्तस्तल को जाकर छू लेना दूसरी बात है। फिर भी मानव ने अपना प्रयत्न कहाँ छोड़ा है? वह डुबकी-पर-डुबकी लगाता ही आ रहा है, और लगाता ही जाएगा। उत्तराध्ययन सूत्र आगम सागर का ही एक बहुमूल्य दीप्तिमान् रत्न है। वह स्वयं इतना परिष्कृत है, कि उसे अपने मूल्य को उजागर करने के लिए किसी और परिष्कार की अपेक्षा नहीं है। अत: मैंने उत्तराध्ययन के सम्बन्ध में परिष्कार जैसा नया कुछ नहीं किया है। प्राकृतभाषा की परिधियों में रुकी हुई उसकी जनकल्याणी भाव धारा को आज की राष्ट्रभाषा हिन्दी में अवतरित अवश्य किया है, ताकि साधारण मनीषा के जिज्ञासु भी जगत्पितामह प्रभु महावीर की इस अन्तिम दिव्य देशना का कुछ आनन्द ले सकें। मूल पाठ की शुद्धता का काफी ध्यान रखा गया है। अनुवाद को भी मूल के आस-पास ही रखा गया है, दूर नहीं जाने दिया है। बहुत से अनुवाद बहुत दूर चले गए हैं, और उसका यह परिणाम आया है कि मूल की प्रभा उन पर न आ सकी और वे अपना अर्थ ही खो बैठे। मेरा अनुवाद कैसा है, मैं स्वयं क्या कहूँ। जहाँ तक बन पड़ा है, मैंने उसे अच्छा से अच्छा बनाने का उपक्रम किया है। फिर भी आप जानते हैं, अनुवाद आखिर अनुवाद ही तो है। मुल की भावगरिमा को वह ज्यों-की-ज्यों कैसे वहन कर सकता है? साथ ही मैं अपनी सीमा को भी जानती हूँ। अत: मेरे कर्तृत्क का भी मुझे बोध है, कि वह कैसा और कितना होता है। मेरे अनुवाद की कमजोरियों का मुझे पता है। फिर भी 'यावद् बुद्धि-बलोदयम्' मैंने जो कुछ किया है, उस पर गर्व तो नहीं, किन्तु सात्विक सन्तोष अवश्य है। यह मेरा पहला ही प्रयत्न है। आशा रखती हूँ, यदि मुझे आगे बढ़ने का कुछ और अवसर मिला, तो अब की अपेक्षा सब कुछ और अच्छा उपस्थित कर सकूँगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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