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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण समय पेड़ के पत्तों को परिवर्तित होते और पीले पत्तों को गिरते देखकर जीवन की अनित्यता का ख्याल पैदा होता रहेगा। अल्पेच्छता भी रहेगी।
गाथा २०-देह के छोड़ने का अर्थ 'देह को नहीं. देहभाव को छोड़ना है. देह में नहीं, देह की प्रतिबद्धता-आसक्ति में ही बन्धन है। देह की प्रतिबद्धता से मुक्त होते ही साधक के लिए देह मात्र जीवन यात्रा का एक साधन रह जाता है, बन्धन नहीं।
अध्ययन ३६ गाथा ३–यहाँ भाव का अर्थ पर्याय है।
गाथा ४-पूरण-गलनधर्मा पुद्गल रूपी अजीव द्रव्य है। रूप से उपलक्षणतया रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श-चारों का ग्रहण है । धर्मास्तिकाय आदि चार अरूपी अजीव द्रव्य हैं । इनमें उक्त रूपादि चार धर्म नहीं हैं।
गाथा ५--पदार्थ खण्ड और अखण्ड दोनों तरह से जाना जाता है। धर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव वस्तुत: अखण्ड द्रव्य हैं। फिर भी उनके स्कन्ध, देश, प्रदेश के रूप में तीन भेद किए हैं। धर्मास्तिकाय स्कन्ध में देश और प्रदेश बुद्धि-परिकल्पित है। एक परमाणु जितना क्षेत्रावगाहन करता है, वह अविभागी विभाग, अर्थात् फिर भाग होने की कल्पना से रहित सर्वाधिक सूक्ष्म अंश प्रदेश कहलाता है। अनेक प्रदेशों से परिकल्पित स्कन्धगत छोटे बड़े नाना अंश देश कहलाते हैं। पूर्ण अखण्ड द्रव्य स्कन्ध कहलाता है । धर्म और अधर्म अस्तिकाय स्कन्ध से एक हैं। उनके देश और प्रदेश असंख्य हैं । असंख्य के असंख्य ही भेद होते हैं, यह ध्यान में रहे। आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। लोकाकाश के असंख्य और अलोकाकाश के अनन्त होने से अनन्त प्रदेश हैं। वैसे आकाश स्कन्धत: एक ही है।
काल को अद्धा समय कहा है। यह इसलिए कि समय के सिद्धान्त आदि अनेक अर्थ होते हैं। अद्धा के विशेषण से वह वर्तनालक्षण काल द्रव्य का ही बोध कराता है । स्थानांगसूत्र (४, १, २६४) की अभयदेवीय वृत्ति के अनुसार काल का सूर्य की गति से सम्बन्ध रहता है । अत: दिन, रात आदि के रूप में काल अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं। काल में देश-प्रदेश की परिकल्पना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह निश्चय में समयरूप होने से निर्विभागी है । अत: उसे स्कन्ध और अस्तिकाय भी नहीं माना है।
गाथा ९-अपरापतोत्पत्तिरूप प्रवाहात्मक सन्तति की अपेक्षा से काल अनादि अनन्त है। किन्तु दिन, रात आदि प्रतिनियत व्यक्तिस्वरूप की अपेक्षा आदि सान्त
गाथा १०-पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु चार भेद हैं। मूल पुद्गल द्रव्य परमाणु ही है। उसका दूसरा भाग नहीं होता है, अत: वह निरंश होने
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