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________________ ३०-अध्ययन ४५५ (१) आलोचनाह-अर्ह का अर्थ योग्य है। गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना आलोचना है। (२) प्रतिक्रमणाह-कृत पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिच्छामि दुक्कड़' कहना, 'मेरे सब पाप निष्फल हों-इस प्रकार पश्चात्तापपूर्वक पापों को अस्वीकृत करना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पापकार्यों से दूर रहने के लिए सावधान रहना। (३) तदुभयाह-पापनिवृत्ति के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों करना। (४) विवेकाह-लाये हुए अशुद्ध आहार आदि का परित्याग करना। (५) व्युत्सर्गार्ह-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना । (६) तपोऽर्ह-उपवास आदि तप करना। (७) छेदाह-संयम काल को छेद कर कम करना, दीक्षा काट देना। (८) मूलार्ह-फिर से महाव्रतों में आरोपित करना, नई दीक्षा देना। (९) अनवस्थापनार्ह-तपस्यापूर्वक नई दीक्षा देना। (१०) पारंचिकाई-भयंकर दोष लगने पर काफी समय तक भर्जा एवं अवहेलना करने के अनन्तर नयी दीक्षा देना। गाथा ३३-वैयावृत्य तप के दस प्रकार हैं । (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) स्थविर-वृद्ध गुरुजन, (४) तपस्वी, (५) ग्लान-रोगी, (६) शैक्ष-नवदीक्षित, (७) कुल-गच्छों का समुदाय, (८) गण-कुलों का समुदाय, (९) संघ-गणों का समुदाय, (१०) साधर्मिक-समानधर्मा, साधु-साध्वी। अध्ययन ३१ गाथा २ से २०-यहाँ चारित्र की विधि-निषेधरूप अथवा प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप उभयात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति ही चारित्र है। बहिर्मुखता से लौटकर अन्तर्मुखता में चेतना को लीन करना ही चारित्र का आदर्श है। आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्य संग्रह में इसी भाव को यों व्यक्त किया है-“असुहादो विणिवत्ती, सुभे पवत्ती य जाण चारितं।" तीन दण्ड दुष्प्रवृत्ति में संलग्न मन, वचन और काया–तीनों दण्ड हैं। इन से चारित्ररूप ऐश्वर्य का तिरस्कार होता है, आत्मा दण्डित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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