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३६ - जीवाजीव - विभक्ति
२६७. सत्यग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य । अणायार-भण्डसेवा
जम्मण- मरणाणि बन्धन्ति ॥
बुद्धे
२६८. इइ पाउकरे नाय परिनिव्वु । छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए ।
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-त्ति बेमि ।
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जो शस्त्र से, विषभक्षण से, अथवा अग्नि में जलकर तथा पानी में डूबकर आत्महत्या करता है, जो साध्वाचार से विरुद्ध भाण्ड - उपकरण रखता है, वह अनेक जन्म-मरणों का बन्धन करता है ।
इस प्रकार भव्य जीवों को अभिप्रेत छत्तीस उत्तराध्ययनों कोउत्तम अध्यायों को प्रकट कर बुद्ध, ज्ञातवंशीय, भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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