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जीवाजीव-विभक्ति जीव और अजीव की विभक्ति ही तत्त्व-ज्ञान का प्राण है। जीवाजीव का भेदविज्ञान ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग् ज्ञान है।
जीव और अजीव द्रव्य समग्रता से आकाश के जिस भाग में हैं, वह लोक कहा जाता है। और जहाँ ये नहीं हैं, केवल आकाश ही है, वह अलोक है। लोक स्वरूपत: अनादि अनन्त है। अत: इसका न कोई निर्माता है, कर्ता है और न कोई संहर्ता है।
जीव और अजीव का संयोग अनादि है। यह संयोग ही संसारी जीवन है। देह इन्द्रिय और मन, सुख और दुःख-इसी संयोग पर आधारित हैं। यह संयोग प्रवाह से अनादि है, फिर भी यह सान्त हो सकता है। क्योंकि राग और द्वेष ही उक्त संयोग के कारण हैं। कारण को मिटा देने पर कार्य स्वत: समाप्त हो जाता
है।
जीव मुल चेतना की स्वरूप दृष्टि से विभिन्न श्रेणी के नहीं हैं। किन्तु शरीर, स्थान, क्रिया और गति आदि के भेदों से ही प्रस्तुत में जीव के भेदों का निरूपण किया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार बहुत सुन्दर है। दुर्लभ बोधि, सुलभबोधि, बाल मरण, पंडित मरण, कन्दर्प भावना, किल्बिषिक भावना, आसुरी भावना आदि का वर्णन बहुत ही संक्षिप्त है, किन्तु उसमें उत्तराध्ययन का एक प्रकार से समग्र विचार-नवनीत आ जाता है।
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