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१३. हिरण्णं जायरूवं च मणसा वि न पत्थए ।
कंच खू fare विक्कए ||
१४. किणन्तो कइओ होइ विक्किणन्तो य वाणिओ । कयविक्कयम्मि वट्टन्तो भिक्खू न भवइ तारिसी ॥
१५. भिक्खियव्वं न केयव्वं भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा । कयविक्कओ महादोसो भिक्खावत्ती
सहावहा ॥
१६. समुयाणं उंछमेसिज्जा जहासुत्तमणिन्दियं । लाभालाभम्मि संतुट्टे पिण्डवायं चरे मुणी ॥
१७. अलोले न रसे गिद्धे जिब्भादन्ते अमुच्छिए । न रसट्ठाए भुंजिज्जा जवणट्ठाए महामुनी ॥
१८. अच्चणं रयणं चेव
वन्दणं पूयणं तहा । इड्डीसक्कार-सम्मा मणसा वि न पत्थए ।
१९. सुक्कज्झाणं झियाएज्जा अणियाणे वोसटुकाए जाव कालस्स पज्जओ ॥
अकिंचणे । विहरेज्जा
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उत्तराध्ययन सूत्र
क्रय-विक्रय से विरक्त भिक्षु सुवर्ण और मिट्टी को समान समझने वाला है, अतः वह सोने और चाँदी की मन से भी इच्छा न करे ।
वस्तु को खरीदने वाला क्रयिकग्राहक होता है और बेचने वाला वणिक् अतः क्रय-विक्रय में प्रवृत्त साधु 'साधु' नहीं है।
भिक्षावृत्ति से ही भिक्षु को भिक्षा करनी चाहिए, क्रय-विक्रय से नहीं । क्रय-विक्रय महान् दोष है । भिक्षा-वृत्ति सुखावह है।
मुनि श्रुत के अनुसार अन्दित और सामुदायिक उच्छ (अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार) की एषणा करे । वह लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रहकर पिण्डपात - भिक्षा-चर्या करे ।
अलोलुप, रस में अनासक्त, रसनेन्द्रिय का विजेता, अमूच्छित महामुनि यापनार्थ - जीवन - निर्वाह के लिए ही खाए, रस के लिए नहीं ।
मुनि अर्चना (पुष्पादि से पूजा), रचना (स्वस्तिक आदि का न्यास), पूजा (वस्त्र आदि का प्रतिलाभ), ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना न करे ।
मुनि शुक्ल अर्थात् विशुद्ध आत्मध्यान में लीन रहे । निदानरहित और अकिंचन रहे । जीवन पर्यन्त शरीर की आसक्ति को छोड़कर विचरण करे ।
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