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मोक्षमार्ग-गति साधक की यात्रा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से प्रारम्भ होकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की पूर्णता में समाप्त होती है।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप मोक्षगति के सा न हैं और इन साधनों की पूर्णता ही मोक्ष है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष—इन नव तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की सम्यक् श्रद्धा 'दर्शन' है। नव तत्त्वों का सम्यक् बोध 'ज्ञान' है। रागादि आश्रवों का निग्रह-संवरण होना ‘चारित्र' है, और आत्मोन्मुख तपनक्रियारूप विशिष्ट जीवनशुद्धि तप है, जिससे पूर्व संचित कर्मों का अंशत: क्षय होता है। ज्ञान के पाँच प्रकार हैं, दर्शन की दस रुचियाँ हैं, चारित्र के पाँच प्रकार हैं तथा बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से तप के दो भेद हैं।
यह निरूपण व्यवहार की अपेक्षा से है। निश्चय नय की अपेक्षा से तो आत्मस्वरूप की प्रतीति दर्शन है। स्वरूप-बोध ज्ञान है। स्वयं में स्वयं की संलीनता चारित्र है। इच्छा-निरोध तप है।
प्रथम दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है तथा दर्शन और ज्ञान के बाद ही चारित्र एवं तप आता है। चारित्र और तप के बाद मोक्ष होता है । मात्र ज्ञान से अथवा केवल आचार से मुक्ति नहीं होती है, किन्तु ज्ञान और आचार के सम्यक समन्वय से मुक्ति होती है। कहीं-कहीं प्रथम ज्ञान का उल्लेख है, किन्तु विशुद्ध दार्शनिक मीमांसा के अनुसार प्रथम दर्शन का ही उल्लेख है, क्योंकि सम्यग् दर्शन से ही अज्ञान सम्यग् ज्ञान होता है।
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