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________________ २४-प्रवचन-माता २५३ द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से यतना चार प्रकार की है। उसको मैं कहता हूँ। सुनो। दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता तं मे कित्तयओ सुण ।। दव्वओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रीएज्जा उवउत्ते य भावओ॥ द्रव्य से-आँखों से देखे। क्षेत्र से-युगमात्र भूमि को देखे। काल से-जब तक चलता रहे तब तक देखे। भाव से-उपयोगपूर्वक गमन करे। ८. इन्दियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्परक्कारे उवउत्ते इरियं रिए॥ इन्द्रियों के विषय और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर मात्र गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक चले। कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया। हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव य॥ भाषा समिति क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त रहे। १०. एयाइं अट्ठ ठाणाई परिवज्जित्तु संजए। असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पनवं॥ प्रज्ञावान् संयत इन आठ स्थानों को छोड़कर यथासमय निरवद्यदोषरहित और परिमित भाषा बोले। ११. गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा। आहारोवहि- सेज्जाए एए तिन्नि विसोहए। एषणा समिति गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा से आहार, उपधि और शय्या का परिशोधन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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