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८० | अपरिग्रह-दर्शन
अपरिग्रह का आदर्श यही है, कि जो त्याग दिया सो त्याग दिया। उसकी आकांक्षा करने की आवश्यकता नहीं। किन्तु जो रख लिया गया है, उसका उपयोग किस प्रकार किया जाए-सोचना तो यह है। यही बात तो महत्व की है।
देखना होगा, कि जो धन रख लिया गया है, वह धनी के ऊपर सवार है या धनी धन के ऊपर सवार है ? गाड़ी या घोड़ा जो आपने रख छोड़ा है, वह आपकी सवारी के लिए है, अपने ऊपर सवार करने के लिए नहीं है, इसी प्रकार धन भी आपके ऊपर सवार होने के लिए नहीं होना चाहिए । जब तक आपके पास धन-सम्पत्ति है, आपको उस पर सवार होकर जीवन की यात्रा तय करनी है, यह नहीं कि उसे अपने ऊपर सवार करके चलना है।
__ मतलब यह है, कि यदि बुद्धि जागृत हो गई है, शुभ-संकल्प और पवित्र भावना जाग गई है, तो परिग्रह के द्वारा भी सुन्दर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। अगर आपने ऐसा किया, तो इसका अर्थ यह है, कि आप धन पर सवार हैं और धन आप पर सवार नहीं है।
परिग्रह को रखे रहना, उससे चिपटे रहना, न खुद खाना और न किसी शभ कर्म में खर्च करना, यह मूर्छा का लक्षण है, आसक्ति है और यही संसार-परिभ्रमण की जड़ है।
एक व्यक्ति ऐसा है, जिसके पास वस्तु थोड़ी है, फिर भी समय आने पर वह उसका उपयोग करने से नहीं चूकता, तो चाहे वह वस्तु कौड़ी की हो या लाख की, अपरिग्रह ही है।
___ कोई साधु हो या गृहस्थ हो, आवश्यकता दोनों को रहती है। ऐसा तो नहीं है, कि मेरे शरीर का वस्त्र देवता द्वारा बनाया हुआ है, और आपके वस्त्र जलाहे ने बनाए हों। कपड़ा तो जलाहा बुनता है, और क्या साध का और क्या श्रावक का, कपड़ा तो कपड़ा ही है । फिर यह कैसे हो सकता है, कि गृहस्थ के पास रखा हुआ कपड़ा तो परिग्रह हो जाए? और साधु के पास रखा हुआ परिग्रह न हो ? साधु परिग्रह की कामना नहीं करता, यह ठीक है, मगर इसीलिए वह अपरिग्रही नहीं कहा जा सकता, रोटी जब तक आपके पास रहे: तब तक तो परिग्रह कहलाए और सन्त के पात्र में डालते ही अपरिग्रह हो जाए, यह क्या बात है ? सन्त ने कौनसा जादू कर दिया, कि वह परिग्रह से अपरिग्रह बन गई ?
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