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________________ परिग्रह क्या है ? | ७६ पापानुबन्धी पुण्य बांध लिया, और उसी का यह परिणाम है, कि लक्ष्मी पा करके भी वह सत्कर्मों में खर्च नहीं कर सकता था। यह तो उदाहरण है । आशय यह है, कि जब कभी पुण्य किया जाता है, और मन में मलिन भाव आ पाते है तो बमत में विष का मिश्रण हो जाता है । यह तो मनोमम्थन की बात है। कोई भी आदमी अपने मन को जांचे और मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं की जांच-पड़ताल करे, तो उसे मालूम होगा, कि कभी-कभी दोनों प्रकार की भावनाएं आपस में टकराती हैं। कभी कोई सत्कर्म किया जाता है, तो उसे करते समय भाव उंचे होते हैं, किन्तु उसी समय दूसरी बुरी तरंग भी आती है, और दोनों घुनमिल कर ऐसा रूप धारण कर लेती हैं, कि उसमें पाप और पुण्य की भावनाएं जाग जाती हैं । जब भावना में पाप और पुण्य का मिश्रण होता है, तो उसके द्वारा पापानुवन्धी पुण्य का बन्ध हो जाता है। पापानबन्धी पूण्य का बन्ध करने वाला मनुष्य आगे चल कर धन के बन्धन में बंध जाता है, और उस धन को पुण्यार्थ व्यय न करके पाप में ही खर्च करता है। मनुष्य धन पाता है, तो उसमें सद्भावनाएँ भी जागृत होनी चाहिए, जिससे वह अच्छे रूप में उसे खर्च कर सके, और उसके जहर को अमृत का रूप प्रदान कर सके। पुराने आचार्यों की गाथाओं में ऐसी प्रार्थनाएं भी आती है कि प्रभो! मुझे धन मिसे, तो उसके साथ उसका सदुपयोग करने की बुद्धि भी मिले । मुझे सम्पत्ति मिले, किन्तु ऐसी सदभावना भी मिले, कि उसका उपयोग कर सक-उसे भने काम में लगा सकू । उसका ऐसा उपयोग कर कर सक, कि मेरे जीवन का भी निर्माण हो, और समाज तथा परिवार का भी निर्माण हो। भगवन् ! ऐसी वृत्ति मुझे देना। भारतीय ग्रन्थों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं । उनका उद्देश्य यही है, कि मनुष्य जब तक गृहस्थी में रह रहा है, उसे सम्पत्ति को आवश्यकता रहती ही है, परन्तु जब सम्पत्ति मिले, तो उपभोग करने की वृत्ति भी मिलनी चाहिए। प्राप्त सम्पत्ति का सदुपयोग करके जो अपने पथ को प्रशस्त, उज्ज्वल और मंगलमय बना लेता है, जो अपनी सम्पत्ति को अपने जीवन निर्माण में सहायक बना लेता है, उसी का सम्पत्ति पाना सार्थक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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