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________________ परिग्रह क्या है ? | ७३ अटक जाता है । स्वर्ग में चला जाता है, या अन्यत्र कहीं और ? वह सीधा मोक्ष में नहीं पहुँचता है । यह ठीक है, क्योंकि उसकी साधना अपूर्ण होती है, वह अपनी साधना को पूर्ण नहीं कर पाता है, और जब पुनः साधना करता है, और उसमें पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब मोक्ष पा लेता है । यह बात तो साधु के विषय में भी है । यह आवश्यक नहीं, कि प्रत्येक साधु एक ही जीवन में अपनी साधना की पूर्णता पर पहुँच जाए और इस लिए मुक्ति प्राप्त कर ले। बल्कि, आज के जमाने में तो कोई भी साधु इसी भव से मोक्ष नहीं पा सकता । उसे भी स्वर्ग में जाना पड़ता है । तब क्या श्रावक की तरह आज के साधुओं का मार्ग भी अलग मानना पड़ेगा ? आशय यह है, कि जहाँ तक अहिंसा और सत्य आदि का सवाल है, अलग-अलग नहीं है, किन्तु जीवन के व्यवहार अलग-अलग हैं; और उन्हीं जीवन के व्यवहारों को लेकर हम साधु और श्रावक का भेद करते हैं, और इस रूप में साधु का जीवन अलग है, और गृहस्थ का जीवन अलग है । यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देनो है और वह है, कि मेरे इस विवेचन का अर्थ यह न निकाला जाए, कि गृहस्थ और साधु की अहिंसा और सत्य एक ही हैं उनके उत्तरदायित्व भी एक ही हैं । स्पष्ट किया जा चुका है, कि दोनों में जहाँ अभेद है, वहाँ दोनों की श्र ेणियों में भेद भी है । इस कारण गृहस्थ पर अपने परिवार, समाज और देश के रक्षण और पालन-पोषण का उत्तरदायित्व है, गृहस्थ उससे बच नहीं सकता, और उसे बचना चाहिए भी नहीं । वह यह कहकर छुटकारा नहीं पा सकता, कि साधु देश और समाज की कोई व्यावहारिक सेवा नहीं करते, तो हमें भी उसकी क्या आवश्यकता है ? साधु समाज और देश से अपना सम्बन्धविच्छेद करके एक विशिष्ट जीवन में प्रवेश करता है, परन्तु गृहस्थ ऐसा नहीं करता । यद्यपि साधु का भी किसी सीमा तक समाज के साथ सम्बन्ध रहता है, और इस कारण वह भी अपने ढंग से समाज का उपकार करता है । साधु भो समाज में रहता है । पानी, पानी ही है; चाहे वह नदी में हो, कुआ में हो, या घड़े में भर लिया गया हो वह प्यास बुझाएगा ही । इसी प्रकार अहिंसा चाहे साधु की हो. चाहे श्रावक की हो, वह तो संवर रूप ही है, और मोक्ष का ही मार्ग है । इस दृष्टि से साधु और श्रावक का मार्ग परस्पर विरोधी नहीं कहा जा सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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