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अपरिग्रह और दान | ६५
बड़ा भारी ऐहसान नहीं कर रहे हैं । अगर आप त्याग की भावना से दान करते हैं, और देय-वस्तु पर से ममता त्यागना चाहते हैं, तब तो आपका दान प्रशस्त है, और आप अपने ऊपर ही अनुग्रह करते हैं, और उसके लिए दूसरों पर एहसान जतलाना योग्य नहीं है । यदि प्रतिष्ठा के लिए, कीर्ति के लिए और नेकनामी के लिए दान देते हैं, तो उस दान में चमक नहीं है । उससे दोनों ओर अंधकार बढ़ता है । ऐसा दान जनता के मन में कोई सदभावना नहीं पैदा करता है। इसके विपरीत उनके मन में वह घणा की आग को जन्म देता है। जनता अनुभव करती है, कि इधर हमको लटा जाता है, और उधर दान दिया जाता है ।
मगर जो दाता यह समझता है, कि मैंने इकट्ठा किया है, अब मैं इसका क्या करू? मुझे इतने की आवश्यकता नहीं है, और जनता की आवश्यकता है। ऐसा समझ कर जो जनता के हित के लिए देता है, वह नहीं समझता, कि मैंने बड़ा अनुग्रह किया है, बल्कि यह समझता है, कि मैंने धन-संचय करने का प्रायश्चित्त किया है। परिग्रह के पाप का प्रायश्चित है, दान ।
इस प्रकार की ऊँची भावना से दिए जाने वाले दान से अहंकार का जहर नहीं उत्पन्न होता, बल्कि वह दान जीवन के विष को दूर कर देता है, और जीवन को अमतमय बनाता है। जिस समाज और जिस देश में ऐसा दान होता है, समाज, और देश के साथ ही दाता भी ऊँचा उठता है । ____ आशय यह है, कि मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है, कि वह अपने जीवन की आवश्यकताओं को भली-भांति समझे और उनसे अधिक के लिए अपनी इच्छाओं पर ब्रेक लगा ले । पहले जो अधिक इकट्ठा कर चुका हो, उस पर से भी अपना प्रभुत्व हटाने के लिए दान दे, और इस तरह परिग्रह का परिमाण कर ले । गृहस्थ अपनी मर्यादा के भीतर रहकर जब उपार्जन करे, तब इस प्रकार करे, कि खुद भी खा सके और दूसरे भी खा सकें। यह नहीं, कि ऐसा उदरंभरी बन जाए, कि दूसरों का हक छीन-छीन कर आप हड़प जाए। जब तक यह वृत्ति उत्पन्न नहीं होगी, जोवन में शान्ति नहीं मिलेगी। विष खाने पर शान्ति कैसे मिल सकती है।
परिग्रह-परिमाण, जैसे व्यक्ति के जीवन को शान्त, संतोषमय और सुखमय बनाता है, उसी प्रकार राष्ट्रों के जीवन को भी ! जो सिद्धान्त
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