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________________ अपरिग्रह और दान | ६१ इच्छाओं का परित्याग कर देना, अथवा उनकी सीमा कर देना ही राज मार्ग है | एक आदमी कपड़े की दूकान करता है । ज्योंही उसके पास काफी पैसा जुड़ जाता है, तो उसे किसी तरह काम में लगाने की फिकर करता है, और उस पैसे से और पैसा पाने की सोचता है । इस रूप में वह सर्राफ की या अनाज की दूसरी दूकान खोल लेता है, और तब और भी अधिक पैसा इकट्ठा हो जाता है । उसको भी वह उपार्जन में लगाने की फिकर करता है, क्योंकि पैसा निठल्ला नहीं बैठ सकता, उसको तो हरकत चाहिए । इस तरह वह एक आदमी ही एक दिन सारे बाजार पर कब्जा कर लेता है । धनकुबेर बन जाता है । अब तक मुझे ऐसे कई आदमी मिले हैं, जिन्होंने मुझसे कहा है, कि उनके यहाँ अमुक-अमुक तरह की दूकानें हैं। मैं सब की सुना करता हूँ । वे समझते हैं, कि हम अपना गौरव प्रदर्शित कर रहे हैं, और मैं सोचता हूँ कि इन्होंने सारे बाजार पर कब्जा कर लिया है, तो दूसरों को कमाने की जगह रहेगी या नहीं ? लेकिन मनुष्य परिग्रह की वृद्धि में ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं । हिंसक हिंसा करके शर्मिन्दा होता है, झूठ बोलने वाले को झूठा कह दिया जाए तो वह अपना अपमान समझता है, और इससे पता चलता है, कि वह स्वयं झूठ को निन्दनीय मानता है। चोर चोरी करके अपने को गुनहगार समझता है, और अपने आपको छिपाता है, कम-से-कम चोरी करने का ढिढोरा नहीं पीटता । व्यभिचारी आदमी व्यभिचार करता है, तो लुकछिपकर करता है, और अपने लिए कलंक की बात समझता है। इन पापों का आचरण करने वाले अपने पाप का बखान नहीं करते, किन्तु परिग्रह का पापी अपने आपको पापी नहीं समझता, और उस पाप के लिए लज्जित भी नहीं होता। यही नहीं, इस पाप का आचरण करने में आज गौरव समझा जाता है, और बड़े अभिमान के साथ इस पाप का बखान किया जाता है । समाज ने भी जान पड़ता है, इस पाप को पाप नहीं मान रखा है और यही कारण है, कि आज के समाज में परिग्रह के पाप की बड़ी प्रतिष्ठा देखी जा रही है । देश में, समाज में, जात-बिरादरी में, विवाहशादी के अवसर पर, सार्वजनिक संस्थाओं के जल्सों-उत्सवों में, इस प्रकार प्रत्येक अवसर पर परिग्रह के पापियों की ही प्रतिष्ठा होती देखी जाती है । और घोर आश्चर्य की बात तो यह है, कि जो जितना बड़ा परिग्रह- पापी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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