SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० | अपरिग्रह-दर्शन नहीं होना चाहिए कि उठे और दौड़ लगाते रहे, और धन जोड़ते रहे, और नयी-नयी आवश्यकताओं के पीछे पचास-साठ वर्ष गुजार दिए और फिर भी जीवन की आवश्यकताओं की तालिका का पता ही न लगा । यह भी न समझ पाए कि जीवन की आवश्यकताएँ क्या हैं ? ऐसा तो नहीं होता, कि कोई बाजार में जाए और उसे यही मालूम न हो कि मेरी आवश्यकताएं क्या हैं ? कोई सारे बाजार क तो समेट लाने का प्रयत्न नहीं करता। होता यही है, कि घर से निकलने के पहले मनुष्य अपनी आवश्यकताओं का विचार कर लेता है, मुझे अमुक चीजें चाहिए-ऐसा निश्चय कर लेता है, और फिर बाजार में निकलता है । जीवन के बाजार में भी जीवन की तालिका बनाकर चलना चाहिए, और जो इस प्रकार चले हैं, वहो अपरिग्रही हैं। यहो श्रावक का अपरिग्रह ब्रत है, इच्छा परिमाण व्रत है। भगवान् महावीर के पास कोई साधक आया, सम्राट आया या गरीब आया, उन्होंने यही कहा, कि अपने जीवन की आवश्यकताओं को समझो । आज तक नहीं समझ सके हो, अंधे की तरह दौड़ रहे हो । आखिर बाजार में पागलों की तरह नहीं दौड़ना है, बुद्धि लेकर चलना है। ___जीवन के बाजार में भी सबसे पहले अपना दृष्टिकोण निर्धारित कर लेना है । क्या करना है, और क्या-क्या हमारी आवश्यकताएं हैं, यह सोच लेना है, और सोच लेने के बाद आवश्यकता से अधिक नहीं लेना है । ऐसा करने पर ही जीवन के बाजार में पैठ हो सकती है। ऐसा करने से पहले अपने मन से सलाह लेनी चाहिए, और उसे राजी कर लेना चाहिए। ___ इस प्रकार आवश्यकताओं का पता लगाकर शोषण बन्द कर देना चाहिए । जो मनुष्य इस तरीके से चलता है, उसी का जीवन कल्याणमय बन सकता है, और वही जीवन का वास्तविक लाभ उठा सकता है। इसके विपरीत, जो अपनी आवश्यकताओं पर विचार नहीं करता, उन्हें निर्धारित नहीं करता, आंखें मोंच कर उनको पूर्ति करने में ही जुटा रहता है, वह अपना समूचा जीवन बर्बाद कर देता है, और उसके हाथ कुछ भी नहीं आता । अन्त में वह शून्यता का भागी होकर पश्वात्ताप करता है । उसे जीवन का रस नहीं मिल पाता। __ अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को समझ लेने और उनसे अधिक संग्रह न करने से ही संसार के संघर्ष समाप्त हो सकते हैं। हमारे देश में आज जो संघर्ष चल रहे हैं, उन्हें शान्त करने का यह सर्वोपरि उपाय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy