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________________ अपरिग्रह और दान | ५५ . एक रस हो जायगी और उस पानी से एक मधुर पेय तैयार हो जायगा, जो पीते ही शान्ति प्रदान करेगा। यही बात जीवन की साधना के सम्बन्ध में है। जो साधना जीवन में पत्थर की तरह पड़ी है और जीवन में घुल-मिल नहीं रही है, जीवन के साथ एकरस नहीं हो रही है, वह जीवन की वास्तविक साधना नहीं है। पुराने जमाने में ऐसी साधनाएं बहुत को जाती थीं, किन्तु जैनधर्म ने उनका विरोध किया। वे साधनाएँ केवल कष्ट देने के लिए थीं, उल्लास और आनन्द देने के लिए नहीं। इसीलिए जैनधर्म ने देह-दंड को कोरा कायक्लेश कह कर उनके प्रति अपनी अरुचि प्रकट की। ___ जोवन में सच्चा चारित्र-बल उत्पन्न होना चाहिए, और जब तक वह नहीं होगा, मनुष्य का कल्याण नहीं होगा। इस प्रकार ऊपर से लादी गयीं साधनाएं जीवन को मंगलमय नहीं बना सकती, और ऊपर से, कल्पना से, लादी हुई आवश्यकताएं भी जीवन को सुखमय नहीं बना सकतीं। जो पथिक जितनी ही आवश्यकताएँ कम करके और जितना हल्का होकर जीवन की यात्रा तय करेगा, वह उतनी ही अधिक सरलता से प्रगति कर सकेगा। अहिंसा, सत्य आदि को साधनाओं को हमें जीवन का अंग बनाना है। और, उन्हें जीवन की अंग बनाने में जो कठिनाइयां हैं, उन्हीं को हल करने के लिए अपरिग्रह-व्रत को जीवन की आवश्यकता है। यह साधकजीवन का अनिवार्य नियम है। __वे कठिनाइयां क्या हैं ? यही कि जीवन की बात स्वीकार कर लेते हैं, तो संग्रह कर लेते हैं, और संग्रह करते-करते इतनी दूर चले जाते हैं, कि उसकी मर्यादा को भूल जाते हैं और खयाल ही नहीं रहता, कि कहाँ तक संग्रह करें? इसके अतिरिक्त जो संग्रह किया है, उसका क्या और कैसे उपयोग करना है ? यह भी नहीं सोचते । संग्रह की सीमा और संग्रह का उद्देश्य ध्यान में रहता है तो हम समझते हैं, कि हम जीवन के आदर्श को निभा रहे हैं, किन्तु जब इन दोनों बातों को भूल कर केवल संग्रह ही संग्रह करते चले जाते हैं, तब जीवन आदर्श-विहीन होकर भारभूत बन जाता है । यह भी इकट्ठा किया, वह भी इकट्ठा किया और सारी जिन्दगी इकट्ठा करने में ही समाप्त कर दो, तो इकटठा करने का प्रयोजन क्या हुआ? वह इकट्ठा करना जीवन के किस काम आया? उसने जीवन को कितना आगे बढ़ाया? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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