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________________ ( ४ ) तापने के लिए दूसरे की झोंपड़ी को जला डालता है । स्वयं सारा जीवन और बेटे, पोते-पड़पोतों तक निश्चिन्त बनने के लिए पड़ोसी के भूखे बच्चों के मुँह से रोटी छीन लेता है । जब तक इस प्रकार संग्रह - बुद्धि बनी रहेगी, अहिंसा और सत्य के उपदेश जीवन में नहीं उतर सकते । इसीलिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह पर जोर दिया है । इसकी व्याख्या कई प्रकार से की जाती है । यदि समाज को सामने रखा जाए तो इसका अर्थ है - संचय का अभाव | इसका बर्थ है - अपनी आवश्यकताओं को कम से कम करके दूसरों की सुख-बुद्धि में सहायक होना । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ हैं -- स्व को घटाते घटाते इतना कम कर देना, कि पर ही रह जाए, स्व कुछ न रहे । उपरोक्त व्यवस्था बौद्ध दर्शन की है । वेदान्ती इसी को दूसरे रूप में प्रस्तुत करता है। वह कहता है, स्व को इतना विशाल बना दो, कि पर कुछ न रहे। दोनों का अन्तिम लक्ष्य है - 'स्व' और 'पर' के भेद को मिटा देना और यही आध्यात्मिक अपरिग्रह है । जैन दर्शन एक यथार्थ - वादी बनकर इसी को अनासक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है । वह कहता है, व्यक्तियों में परस्पर भेद तो यथार्थ है, और रहेगा ही । भेद की सत्ता हमारे विकास को रोक सकती । किन्तु अपने को किसी एक वस्तु के साथ चिपका देना ही विकास की सबसे बड़ी बाधा है । इसी को मूर्छा शब्द से पुकारा गया है। इस प्रकार अपरिग्रह का सिद्धान्त समाज और व्यक्ति दोनों के विकास का मूल मन्त्र बन गया है । धन, सम्पत्ति, सन्तान, शरीर आदि बाह्य वस्तुओं में आसक्ति तो परिग्रह है ही, किन्तु मेरे मन में कई बार एक विचार और भी आया । क्या अपने विचारों की आसक्ति, परिग्रह नहीं है ? यदि मनुष्य प्रत्येक 'सत्यं शिवं सुन्दरं' को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत रहे, अपने हृदय के द्वार खुले रखे, सत्य का अन्वेषक बनकर अपने विचारों में परिवर्तन के लिए तैयार रहे, तो धर्म और ग्रन्थों के झगड़े समाप्त हो जाएँ । मेरो दृष्टि में 'विवारों में अपरिग्रह' का ही दूसरा नाम 'स्याद्वाद' है । और, यह जैन-धर्म की सबसे बड़ी देन है । 7 प्रस्तुत पुस्तक में अपरिग्रह महाव्रत के उपासक एक सन्त ने इसी विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं। उनकी भूमिका में विशाल अध्ययन और मनन तो है ही दीर्घ कालीन अनुभव भी है। उनके विचार समाज तथा व्यक्ति के लिए प्रकाशदायक होंगे, ऐसी मुझे पूर्ण आशा है । Jain Education International डॉ० इन्द्रचन्द्र एम. ए., पीएच. डी., शास्त्राचार्य वेदान्त वारिधि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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