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________________ आवश्यकताए आर इच्छाए । ३१ दुर्दशा की हो, वह भगवान् के पास आकर भी क्या पाएगा? जिसने अपनी इच्छाओं को अप्रतिहत गति से भागने दिया और जो उनका गुलाम बनकर रहा, जिसने इच्छाओं पर नियन्त्रण नहीं किया, इच्छाओं का परिमाण भी नहीं बांधा और जो परिग्रह के ही चंगुल फँसा रहा,जो महारम्भ और महापरिग्रह की भूमिका पर रहा, वह नरक नहीं पाएगा तो क्या पाएगा? तो, सबसे बड़ी बात यही है कि मनुष्य स्वर्ग और मोक्ष पाने के लिए अपनी निरंकुश इच्छाओं पर अंकुश स्थापित करे, अपनी लालसा को जीते और सन्तोषशील होकर जीवन-यापन करे। फिह उसे अपने भविष्य के सम्बन्ध में किसी से पूछने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। जीवन का भगवान् तो अपने अन्दर ही है। एक सन्त ने कहा हैतू प्रभु को प्यार करना चाहता है तो सबसे पहले यह देख कि तू प्रभु की सन्तान को प्यार करता है या नहीं? यदि प्रभु की सन्तान से प्यार नहीं किया तो प्रभु से क्या प्यार कर सकेगा? जो, प्रभु के पुत्रों के गले काटे और प्रभु के चरणों पर उनकी भेंट चढ़ावे । क्या वह प्रभु से प्यार करता है ? और क्या वह प्रभु के प्रसाद को पाने की आशा करता है ? जो इस महत्वपूर्ण प्रश्न को नहीं समझ लेगा, उसका जीवन कभी भी आदर्श जीवन नहीं बन सकता। तो भगवान महावीर ने कहा कि अपने कर्तव्यों को देखो कि तुमने क्या किया है, क्या कर रहे हो और क्या करना चाहिए ? याद रखो, तुम्हारे दुष्कार्य तुम्हारे जीवन का नक्शा नहीं बदल सकते हैं; सत्कार्य ही जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं। किसी ने कहा है- प्रभो ! मैं न राज्य चाहता है, न साम्राज्य चाहता है और न संसार की प्रतिष्ठा और इज्जत चाहता है। मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि नरक में भी जाऊँ तो इतनी कृपा रहे कि मुझे तेरा नाम याद रहे ! जिसके हृदय में भक्ति का तुफान आया है, वह इतना अल्हड़ हो जाता है कि अगर कोई उससे कह दे कि तू नरक में जायेगा, तो उससे यही उत्तर मिलता है हजार बार नरक में जाऊँ, पर यह बता दो कि परमात्मा की भक्ति और प्रेम तो मेरे हृदय से नहीं निकल जाएगा? हृदय में परमात्मा के प्रति अखण्ड प्रीति की ज्योति जग रही हो तो मैं नरक के घोर । अन्धकार को भी प्रकाशमय कर दूंगा। चित्त में भगवद् भक्ति भरी है तो फिर दुनियां के किसी कोने में जाने में कोई भय नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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