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________________ ३० । अपरिग्रह-दर्शन कोई नवीन बात क्या कहनी है ? जो महावीर कह गये हैं, वही सीमंधर स्वामी भी कहेंगे। आखिरकार वहां भी विश्वास रखना पड़ेगा। भगवान महावीर ने मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक बनने के कारण बतला दिये हैं। अब उसमें कोई नयी बात जुड़ने वाली नहीं है । इस प्रकार मनुष्य को अपने तीन जन्मों का पता लगाने में तो कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। तुम अपने पहले के जीवन को देखो, जो पहले करके आए थे, उसी के अनुरूप यहां मिल गया। जिसने पहले कुछ नहीं किया, उसे यहां कुछ नहीं मिला और जो यहां कुछ नहीं कर रहा है, उसे आगे कुछ मिलने वाला नहीं है। इस प्रकार तीन जन्मों के पुण्य-पाप की कहानियां तो यहीं मोजद हैं। उन्हें जानने के लिए सर्वज्ञ की कोई आवश्यकता नहीं है। दुर्भाग्य से इससे आगे हमारी बुद्धि नहीं जाती है, मगर फिर भी हम इतना जानते हैं कि अनन्त --अनन्त जीवन गुजर जाने के बाद भी यही होगा कि अच्छे कर्मों को अच्छा फल मिलेगा और बुरे कर्मों का बुरा फल मिलेगा। हां. तो राजा कोणिक ने भगवान महावीर से अपने भावी जन्म के सम्बन्ध में प्रश्न किया और भगवान ने कह दिया कि इस प्रश्न का उत्तर तो तुम्हारी अन्तरात्मा भी दे सकती है। उमो से पूछ लो । किन्तु जब कोणिक ने विशेष आग्रह किया तो भगवान ने कहा - राजन्, तुम इस शरीर को त्याग कर छठे नरक में जाओगे। बोणिक ने यह उत्तर सुना तो जैसे उस पर वज्र गिर पड़ा ! उसकी सारी मिल्कियत लुट गई ! उसको आशा थी कि भगवान् किसी ऊँचे स्वर्ग का नाम बतलाएगे ! उसने जिस प्रभु से यह आशा की थी, वे सम्राट का लिहाज करने वाले नहीं थे! वह महावीर से स्वर्ग खरीदना चाहता था, पर स्वर्ग न कौड़ियों से खरीदा जा सकता है और न धर्म का दिखावा करने से ही खरीदा जा सकता है। कोणिक हैरान था ! वह कहने लगा----भगवन् ! मैं आपका इतना बड़ा भक्त हूँ-- फिर भी मैं मर कर नरक में जाऊँगा? मगर वह यह नहीं देखता कि भक्त कब से बना? जिसने अपने पिता को कैद किया, अपने नाना को भी नहीं छोड़ा। जिसकी आग में नाना और उसका सारा का सारा परिवार जल कर भस्म हो गया जिसने अपने सहोदर भाइयों के साथ अन्याय और अत्याचार किये, उसके जीवन में दूसरों के सम्बन्ध में क्या भावना होगी? जिसने अपने परिवार की ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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