SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ | अपरिग्रह-दर्शन संसार में ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिए और अपनी लोलुपता के लिए करोड़ों मनुष्यों का रक्त बहाने में संकोच नहीं करते और स्नेही गुरुजनों की हत्या का कलंक भी अपने शीश पर ओढ़ने को तैयार हो जाते हैं ! यह सब क्या चीज है ? आखिर मनष्य इस प्रकार पिशाच क्यों बन जाता है ? कौन-सी शक्ति उसके विवेक को कुचल देती है ? यह सब बढ़ती हुई इच्छाओं का प्रताप है। जिसने अपनी इच्छाओं को स्वच्छन्द छोड़ दिया और उन पर अंकुश नहीं लगाया, वह मानव से दानव बन गया ! और वह दानव जब इच्छाओं पर नियन्त्रण स्थापित कर लेता है और सही राह पर आ जाता है, तो फिर मानव और कभी-कभी महामानव की कोटि में भी आ जाता है। और इस रूप में बड़े विचित्र इतिहास हमारे सामने आते हैं। । कई ऐसे भी होते हैं जो अपने-परायों का खन बहाकर जनता की निगाह में ऊँचा बनने के लिए बाद में भक्त बन जाते हैं। कोणिक ने यही किया। घोर अत्याचार करने के बाद वही कोणिक, भगवान् महावीर का शिष्य बनता है, और जब तक उनके कुशल समाचार नहीं सुन लेता है, पानी का घट भी मुह में नहीं लेता है। वह उस गन्दगी को साफ करना चाहता है, और उन धब्बों को धोने के लिए महापुरुषों के चरणों का आश्रय लेता है। भगवान महावीर के सामने हजारों की सभा जुड़ी है। कोणिक ने चाहा कि भगवान महावीर से मर कर स्वर्ग पाने का फतवा ले ल। वह सोचता है, कि मैंने जो भक्ति की है, उससे मेरे सभी पाप धुल गये। सच्ची भक्ति से पाप धुल भी सकते हैं, किन्तु जहाँ दिखावा ही है और अपनी प्रतिष्ठा को कायम रखने की ही भावना है, जहां मन में भक्ति का सच्चा और निर्मल झरना नहीं बहा है, वहां एक भी धब्बा नहीं धुलता है। तो कोणिक ने प्रश्न किया-प्रभो ! मैं मर कर कहा जाऊँगा? भगवान् ने कहा-यह प्रश्न मुझसे पूछने के बदले, तुम्हें अपने मन से पूछना चाहिए और उसी से मालूम करना चाहिए। प्रश्न का उत्तर देने वाला तो तुम्हारे अन्दर ही बैठा है । तुम्हें स्वर्ग और नरक की कला तो बतनाई जा चुकी है। अब तुम अपने अन्तरात्मा से ही पूछ लो कि कहां जाओगे? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy