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________________ १८८ । अपरिग्रह-दर्शन ढेर लगाने को योजनाएँ तैयार करने में ही नहीं लगा रहना पड़ता । अतः आवश्यक पदार्थों में सन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति परिग्रह को सोमा से दूर रहता है । भले हो उसके पास बाह्य साधन कम होते हैं, परन्तु सन्तोष एवं शान्ति का धन उसके पास अपरिमित होता है। और आचार्य शंकर के शब्दों में -- "वस्तुतः सच्चा धनवान वही है, जिसे सब तरह से सन्तोष है।" क्योंकि वह धनवान की तरह निरन्तर असन्तोष एवं अशान्ति की आग में नहीं जलता है। वह दूसरों को ठगने की उधेड़-बुन एवं भोले-भाले लोगों को किस तरह जाल में फंसाकर या चकमा देकर उनकी जेबें कैसे खाली कराई जाएँ, उसके लिए नये-नये आविष्कार एवं प्लान बनाने की चिन्ताओं से मुक्त रहता है। इसलिए वह सब तरह से शान्तिमय और आनन्दमय जीवन जीता है। अनावश्यक धन-सम्पत्ति एवं पदार्थों का संग्रह करना ही परिग्रह नहीं है,बल्कि अनावश्यक विचारों का संग्रह करना भी परिग्रह है। गांधीजो ने भो कहा है .. "जो मनुष्य अपने दिमाग में निरर्थक ज्ञान ठस रखता है, वह भी परिग्रही है।" जैसे अनावश्यक पदार्थ मनुष्य के मन की शान्ति भंग करते हैं, वैसे निरुपयोगी एव निम्न स्तर के विचार भी उसकी शान्ति का अपहरण करते हैं, उसके जीवन में विकारों को जन्म देते हैं । अतः साधक को अपने दिमाग को सदा-सर्वदा स्वस्थ रखना चाहिए । उसे व्यर्थ के कलह-कदाग्रहों एवं वासनामय विचारों के कूड़े-करकट से नहीं भरना चाहिए। क्योंकि आवश्यक पदार्थ एवं स्वस्थ, सभ्य और ऊँचे विचार हो मनुष्य की सम्पत्ति है। आः इच्छाओं का परित्याग करके आवश्यकताओं को सीमित करना हो वास्तव में सच्चो सम्पत्ति है। क्योंकि इससे सन्तोष भाव का विकास होता है, और यहो सच्चा सुख है । अतः वास्तविक शांति एवं परम आनन्द की अनुभति अपरिग्रह वृत्ति में है। इच्छाओं का, आकांक्षाओं का एवं तृष्णा का निरोध करना, आसक्ति-ममत्व का परित्याग करना ही अपरिग्रह है, और यह आध्यात्मिक-साधना का मूल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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