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________________ इच्छाएँ असीम जीवन ससीम है, और इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और कामनाएँ अनन्त हैं, असोम हैं । समुद्र में उठने वाली जल-तरंगों की कोई गणना करना चाहे, तो वह कभी नहीं कर सकता । एक जल-तरंग सागर में विलीन हो ही नहीं पाती है, और दूसरी तरंग तरगित हो उठती है। उसकी परम्परा निरन्तर चाल रहती है। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति आकाश को नापना चाहे, तो उसके लिए ऐसा कर सकना असम्भव है । क्योंकि वह अनन्त है, असीम है। वह लोक के आगे भो इतना फैला हुआ है, कि जहाँ मनुष्य तो क्या, कोई भी पदार्थ नहीं जा सकता । यही स्थिति इच्छाओं की है। मनष्य के मन में एक के बाद दूसरी आकांक्षा की तरंग अवतरित होती रहती है। चाहे जितनी आकांक्षाएँ पूरी कर दी जाएँ. फिर भी उनका अन्त नहीं आता है। एक कामना के पूर्ण होते हो दूसरी कामना उदित हो जाती है, और उसको पूरा करने का प्रयत्न करो, उसके पूर्व हो तीसरो कामना मन-मस्तिष्क में तरंगित हो उठतो है । इसी कारण भगवान् महावोर ने कहा- "यदि मनुष्य को कैलाश पर्वत के समान सोने-चाँदो के असंख्य पर्वत की मिल जाएँ, तब भी उसकी इच्छा का, तृष्णा का अन्त नहीं आ सकता । क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है, असीम है "सवण्ण-रुपस्स उपव्वया भवे, सिया हु केलास-समा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा उ आगास-समा अणन्तिया ॥" परन्तु, आवश्यकताएँ सोमित हैं । और, सोमित होने के कारण उन की पूर्ति भो सहज हो हो जाता है । उसके लिए मनुष्य को रात-दिन मानसिक-वैचारिक चिन्ता में व्यस्त नहीं रहना पड़ता । चौबीसों घंटे धन का ( १८७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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