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________________ १७० | अपरिग्रह-दर्शन उन्नति करते हुए जीवन व्यतीत कर सकें । समाजवाद में व्यक्ति की अपेक्षा समष्टि की प्रधानता होती है। इसमें सर्व प्रकार के शोषण का अन्त हो जाता है और समाज की पूँजी, समाज के किसी भी वर्ग विशेष के हाथों में न रहकर सम्पूर्ण समाज की हो जाती है । सबका समान उदय ही समाजवाद है । मैं आपसे समाजवाद के सम्बन्ध में कुछ कह रहा था । इसका अर्थ आप यह मत समझिए, कि मैं किसी राजनीतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन आपके सामने कर रहा हूँ । आज का युग राजनीति का युग है, अतः प्रत्येक सिद्धान्त के राजनीतिक दृष्टि से सोचने और समझने का मनुष्य का दृष्टिकोण बन गया है । इसका अर्थ यह भी नहीं है, कि आज के इस युग से पूर्व समाजवाद का अस्तित्व नहीं था । भगवान महावीर और बुद्ध के युग के राजा गणतन्त्री थे । गणतन्त्र भी समाजवाद का ही एक प्राचीनतर रूप है । आज के युग में गांधीजी ने सर्वोदय की स्थापना की और आचार्य विनोबा ने उसकी विशद व्याख्या की । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि सर्वोदय पहले कभी नहीं था । गांधीजी से बहुत पूर्व जैन संस्कृति के महान उन्नायक आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् महावीर के तीथ एव संघ के लिए सर्वोदय का प्रयोग किया था । आचार्य के कथन का अभिप्राय यही था, कि भगवान् महावीर के तीर्थ में, और भगवान् महावीर के शासन में, और भगवान् महावीर के संघ में सबका उदय है, सबका कल्याण है, और सबका विकास है । किसी एक वर्ग का, किसी एक सम्प्रदाय का अथवा किसी एक जाति- विशेष का हो उदय सच्चा सर्वोदय नहीं हो सकता । जिसमें सर्व भूत हित हो, वही सच्चा सर्वोदय है । मेरे अपने विचार में जहाँ अहिंसा औरअनेकान्त है, वहीं सच्चा समाजवाद है, वहीं सच्चा गणतन्त्रवाद है, और वहीं सच्चा सर्वोदयवाद है । आज का समाजवाद भले ही आर्थिक आधार पर खड़ा हो, पर मेरे विचार में केवल अर्थ से ही मानव-जीवन की समस्याओं का हल नहीं हो सकता । उसके लिए धर्म और अध्यात्म की भी आवश्यकता रहती है । केवल रोटो का प्रश्न हो मुख्य नहीं है । रोटो के प्रश्न से भी बड़ा एक प्रश्न है, कि मनुष्य अपने को पहचाने और अपनी सीमा को समझे । यदि मनुष्य अपने को नहीं पहचानता और अपनी सीमा को नहीं समझता, तो उसके लिए समाजीकरण, समाजवाद और सर्वोदयवाद सभी कुछ निरर्थक और व्यर्थ होगा । समाज की प्रतिष्ठा तभी रह सकेगी, जब व्यक्ति अपनी सीमा को समझ लेगा । 跟 जैन भवन, मोती कटरा, आगरा, अगस्त, १९६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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