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________________ १६० | अपरिग्रह-दर्शन सम्पूर्ण संसार का विलय हो जाता है । संसार बने अथवा बिगड़े किन्तु ब्रह्म की सत्ता में किसी प्रकार की गड़बड़ी पैदा नहीं होती। इस पर से यह परिज्ञात होता है, कि वैदिक परम्परा मूल में व्यक्तिवादी है, समाजवादी नहीं । पुराण-काल में हम देखते हैं, कि कभी ब्रह्मा, विष्णु और महेश सभी ओझल हो गए। जो जिस समय शक्ति में आया, लोग उसी के पीछे चलने लगे और लोगों ने अपने संरक्षण के लिए उसी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। क्या वेद में, क्या उपनिषद् में और पुराण में सर्वत्र हमें व्यक्तिवाद ही नजर आता है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यहां तक कह दिया कि "सर्व-धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज ।" सब कुछ छोड़कर हे अर्जुन तू मेरी शरण में आ जा। अर्थात् मेरा विचार ही तेरा विचार हो, मेरी वाणी ही, तेरी वाणी हो और मेरा कम ही तेरा कम हो। इससे बढ़कर और इससे प्रबलतर व्यक्तिवाद का अन्य उदाहरण नहीं हो सकता। दोनों का समन्वय : ___ मैं आपसे व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध में कह रहा था। समाजवादी और व्यक्तिवादी दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं के मूल उद्देश्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है । व्यवस्था चाहे व्यक्तिवादी और समाजवादी हो, उसका मल उद्देश्य एक ही है-व्यक्ति और समाज का विकास । व्यक्तिवादी व्यवस्था में समाज का तिरस्कार नहीं हो सकता । और समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। समाज का विकास व्यक्ति पर आश्रित है, तो व्यक्ति का विकास भी समाज पर आधारित रहता है। व्यक्ति समाज को समर्पण करता है और, समाज व्यक्ति को प्रदान करता है। व्यक्ति और समाज का यह आदान और प्रदान ही, उनके एक-दूसरे के विकास में सहयोगी और सहकारी है। अपने आप में दोनों बड़े हैं। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित रहकर ही जीवित रह सकते हैं। यदि व्यक्ति समाज की उपेक्षा करके चले, तो व्यवस्था नहीं रह सकती और समाज व्यक्ति को ठकराये तो वह समाज भी तनकर खड़ा रह नहीं सकता। आज के युग में व्यक्तिवाद और समाजवाद की बहुत अधिक चर्चा है। कुछ लोग व्यक्तिवाद को पसन्द करते हैं, और कुछ लोग समाजवाद को। मेरे विचार में, व्यक्तिवादी समाज और समाजवादी व्यक्ति ही अधिक उपयुक्त है । हमें एकान्तबाद के झमेले में न पड़कर अनेकान्त दृष्टि से ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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